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तृतीयः सर्गः
लोगों का मन अनुत्साह से भर गया । यह देखता हुआ दूत साकेत नगर पहुंच गया।
६०. स साकेतपुरोद्देशानवाप्य स्वर्गजित्वरान् ।
राजहंस इवाऽनन्दत्तरां मानसविभ्रमान् ॥
वह दूत स्वर्ग को जीतने वाले और मन में विभ्रम पैदा करने वाले अयोध्या पुरी के पास वाले प्रदेशों में आकर आनन्दित हुआ, जैसे राजहंस मानसरोवर के पास जाकर आनन्दित होता है।
६१. भरतेशचरोद्यता , बहलीश्वरसन्निधेः ।
कि वक्ष्यतीति सोत्कण्ठचित्तैर्लोकैरनुद्रुतम् ॥
'आज महाराज भरत का दूत बहली प्रदेश के स्वामी बाहुबली के पास से आ रहा है। वह क्या कहेगा-यह उत्कंठा लोगों के मन में उठी और वे उसके पीछे-पीछे चल
६२. बहिर्मुक्तहयस्तम्बरमस्यन्दननीतितः।
पदातीयितभूपालसुरकिन्नरसञ्चयम् । ६३. नकरत्नांशुवैचित्र्यकल्पितेन्द्रायुधभ्रमम् ।।
सिंहद्वारं विवेशेष , भरतस्य क्षितीशितुः ।
-युग्मम् ।
उस दूत ने महाराज भरत के प्रासाद के सिंहद्वार में प्रवेश किया । वह सिंहद्वार घोड़े, हाथी और रथों का प्रवेश निषिद्ध होने के कारण पैदल चलने वाले राजा, देव और किन्नरों के समूह से संकीर्ण था। वह अनेक रत्न-किरणों की विचित्रता से इन्द्र-धनुष्य का भ्रम पैदा कर रहा था।
६४. मृोन्द्रासनमासीनं , शैलशृङ्गमिवोन्नतम् ।
दुःप्रेक्ष्यं सिंहदच्छौर्यात् , कौशलेन्द्रं ददर्श सः ॥
दूत ने सिंहासन पर बैठे हुए, पर्वत के शिखर की भांति उन्नत, पराक्रम से सिंह की भांति दुष्प्रेक्ष्य कौशल देश के स्वामी भरत को देखा।
१५. सार्वभौमस्तमायातं , दूराद् दूतमतिप्रियम् ।
दशा पीयूषवर्षिण्या , स्नपयामास सन्ततम् ॥ १. अनुद्रुतम्-अनुगतम् ।