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... भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ८४. अस्ति तक्षशिलान्तर्वा , बहिनिर्यातवान् स वा।
अनुशिष्येति तन्मार्गे , प्रजिध्युहें रिकान्' प्रजाः ॥
'वह दूत तक्षशिला में ही है या बाहर चला गया है'-इस बात को जानने के लिए प्रजा ने गुप्तचरों को उसी मार्ग से भेजा।
८५.. किं दुर्गस्तस्य किं शैलः , किं वप्रश्च महौजसः ?
जन्हुकन्या प्रवाहस्य , यथा न सलिला परम् ॥ ..
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उस पराक्रमी बाहुबली के लिए क्या दुर्ग, क्या पर्वत और क्या परकोटा ? उसे कोई नहीं रोक पाएगा। गंगा के प्रवाह से बढ़कर और कोई दूसरा प्रवाह नहीं है !
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८६. निन्यिरे वल्लवैर्गावो , ग्रामान्तः सति भास्करे। .
भयादङ्गीकृतावेगैः , समीरैरिव रेणवः ॥
भयभीत ग्वाले शीघ्र गति से चलकर सूर्य के रहते-रहते गायों को गांव में ले आए, जैसे हवा बालू को उड़ाकर ले जाती है। ,
८७.
जनास्तत्र भयोभ्रान्ता , रति प्रापुर्न कुत्रचित् । पाथोधाविव पीताब्धिपीततोये तिमिवजाः ॥
उस प्रदेश की भयभ्रान्त जनता को, अगस्त्य ऋषि द्वारा समुद्र का पानी पी जाने पर मछलियों की भांति, कहीं भी आनन्द नहीं मिल रहा था।
८८. सर्वत्रापि खलक्षेत्रभनिवेशाः पदे पदे।
सस्यींना अदृश्यन्त , द्विजिह्वा इव सद्गुणैः ॥
वहां चारों ओर फैले हुए खलिहान धान्य रहित थे, जैसे दुर्जन व्यक्ति सद्गुणों से रहित होते हैं।
८६. इति स्वरूपं लोकानामनुत्साहैकमन्दिरम् ।
वीक्षमाणस्ततो दूतः , साकेतनगरं गतः ॥ १. हेरिक:-गुप्तचर (हेरिको गूढपूरुष:-अभि० ३।३६७) २. जन्हुकन्या-गंगा (त्रिस्रोता जान्हवी-अभि० ४।१४७) .. ३. वल्लवः -ग्वाला (गोपगोसंख्यवल्लवा:-अभि० ३।५५३) . ४. द्विजिह्वः-दुर्जन (द्विजिह्वो मत्सरी खलः-अभि० ३।४४)
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