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४.
५.
—युग्मम् ।
उस समय वन विकसित फूलों तथा पवन से प्रकंपित पत्तों वाली कनेर की लता द्वारा चक्रवर्ती भरत के दोनों पावों में चामर की लक्ष्मी - को उपस्थित कर रहा था।
उस समय वह वन पवन द्वारा आकाश में फैले हुए केतकी के पराग का महाराज भरत के शिर पर अपना श्वेत प्रभा वाला छत्र तान रहा था ।
७.
मेरपुष्पकरवीर' वीरुधा', मातरिश्व परिधूतपत्रया | संवितन्वदिव पार्श्वयोर्द्वयोश्चामरश्रियममुष्य चक्रिणः ॥ कैतकेन रजसा तदा वनं व्योम्नि मारुतविवर्तितेन च । अस्य मूर्धनि निजं सितप्रभं, छत्रमादधदिव व्यराजत ॥
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भरत बाहुबलि महाकाव्यम्
८.
वातवेल्लिततरुप्रपातिभिः प्राभृतं नरपतेः फलैर्वनम् ।
1
संतान खलु नेदृशाः क्वचित् स्युश्चराचरविलङ्घ्यताजुषः ॥
वन ने पवन से आन्दोलित होकर वृक्षों से गिरने वाले फल राजा को उपहृत किए । भरत जैसे व्यक्ति कहीं भी चर-अचर जगत् द्वारा अतिक्रमणीय नहीं होते ।
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कामिनीकुचघटीविघट्टनैर्मन्थरो मिलितवक्त्रसौरभः ।
तं निषिक्तवसुधाङ्गसङ्गतोऽमुमुदत् प्रमदकाननानिलः ॥
कामिनियों 'स्तन रूपी कलशों के विघट्टन से मन्थर, उनके मुँह से निकली हुई सौरभ के कारण सुरभित और सिंचित भूमि के स्पर्श से शीतल, अन्तःपुर कानन के उस पवन ने भरत को प्रमुदित किया ।.
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अस्मदृद्धिपरिवर्द्धके रवौ, मेष कुप्यतु रसातिसर्जनात् ।
छायया रविमहो निवारितं संजदस्य शिरसीति शाखिभिः ॥
सूर्य पानी बरसा कर हमारी फल, पुष्प आदि की ॠद्धि को बढ़ाता है, इसलिए महाराज भरत इस पर कुपित न हो जाएं - ऐसा सोचकर वृक्षों ने महाराज भरत के मस्तक पर लगने वाले रवि के आतप को अपनी छाया से रोक दिया ।
१. करवीरः -- कनेर (करवीरो हयमारः -- अभि० ४। २०३ )
२. वीरुध् (वीरुत्) -- बहुत डालों वाली लता (गुल्मिन्युलपवीरुधः - - प्रभि० ४ १८४)
३. मातरिश्वा -- वायु ( मातरिश्वा जगत्प्राणः -- अभि० ४ । १७३ ) ४. रसातिसर्जनात् -- पानीयवर्षणात् ।