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चक्रवर्ती भरत सुन्दरियों के मनोरथों से प्रेरित होकर वन में क्रीडा करने लगे । जिस प्रेमी के मन में प्रीति के नाश होने का भय होता है क्या वह अपनी वल्लभा की इच्छा का अतिक्रमण कर सकता ?
२.
सप्तमः सर्गः
चक्रभृन् मृगदृशां मनोरथै 'रीरितोथ विजहार कानने । वल्लभाभिलषितं हि केनचिल्लुप्यते प्रणयभङ्गभीरणा ?
३.
पार्श्व पृष्ठपुरतः पुरन्ध्रिभिश्च क्रिणश्चरितुमभ्ययुज्यत' । हस्तिनीभिरिव सामजन्मनो ऽनोक है क गहनोन्तरे वने ॥
वृक्षों से अत्यन्त सघन उस वन के मध्य भाग में सुन्दरियों ने चक्रवर्ती भरत को आगे-पीछे और दोनों पावों में वैसे ही घेर लिया जैसे हथिनियां हाथी को घेर
लेती हैं ।
कामिनीसहचरस्य चक्रिणो, विभ्रमं वनयुषो विलोक्य वै 1 तत्र त्रिवशराट् शचीसखः, संचरस्त्रिदिवकाननान्तरे ॥
वन-विहार की वेला में कामिनियों के साथ संचरण करनेवाले चक्रवर्ती भरत की शोभा को देखकर देवलोक के कानन ( नन्दनवन) में इन्द्राणी के साथ संचरण करने वाला देवेन्द्र भी लज्जित हो गया ।
१. मनोरथ: -- कार्मः |
२. अभ्ययुज्यत - - उद्यमः क्रियतेस्म ।
३. सामजन्मा -- हाथी ( मातङ्गवारणमहामृगसामयोनयः - - अभि० ४।२८३ )
४. विभ्रमं -- शोभाम् ।
५. शचीसखः -- शची -- इन्द्राणी सखा अस्ति यस्य सः शचीसखः -- इन्द्राणीसहितः ।