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दशमः सर्गः
१. पताकिनी श्रीभरतेश्वरस्य , सीमान्तरं तक्षशिलाधिपस्य ।
सा शङ्कमाना मुहुराससाद , वधूनवोढेव विलासगेहम् ॥
भरत चक्रवर्ती की सेना बार-बार शंकित होती हुई बाहुबली की सीमा में प्रविष्ट हुई, जैसे नववधू विलासगृह (शयनकक्ष) में शंकित होती हुई प्रविष्ट होती है।
२. तत्काननान्ता युगपत्तदीयैः , सैन्यैरगम्यन्त सविभ्रमाङ्काः ।
शविलासैरिव कामिनीनां , तारुण्यलावण्यजुषः प्रतीकाः ॥
भरत की सेना ने पक्षियों के आवागमन के स्थान वाले उस कानन के छोर को एक साथ धीरे-धीरे प्राप्त किया, जैसे कामिनी स्त्रियों के विलास यौवन की लवणिमा से युक्त प्रवयवों को प्राप्त करते हैं। .
३. रजस्वलाः काननवल्ल्य एता , एषामदृश्याः किल मा भवन्तु।
इतीव वाहः पवनातिपातै भो ललम्बे परिहाय भूमिम् ॥
'ये वन-लताएं रजस्वला हैं (रजयुक्त हैं), अतः सैनिकों के लिए अदर्शनीय न हों'-मानो कि यह सोचकर भरत की सेना के वायु से तेज चलने वाले घोड़े भूमि को छोड़कर आकाश में उछलने लगे।
४. कथिता सा वनराजिरुच्चैनवोढकन्येव बलस्तदीयः ।
हठात्तशाखाकबरी' तदानी , चुक्रोश गाढं वयसां विरावैः॥
जैसे नायक नई वधू की वेणी पकड़कर उसकी कदर्थना करता है वैसे ही भरत की सेना ने उस वनराजि की शाखा रूपी वेणी को बलपूर्वक पकड़कर उसकी कदर्थना की। तब वह वनराजि पक्षियों के घोर कलरव से चीख उठी।
१. कबरी-वेणी। २. वयसां-विहङ्गमानाम्।