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. . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् . ३८. अप्युत्तरीयमस्यांसान्निपपातेति तद्भयात् ।
एतत्संपर्कतो नाशो , निश्चयाद् भविता मम ॥
दूत की भुजाओं पर रखा हुआ उत्तरीय भी इस भय से नीचे गिर पड़ा कि इसके संपर्क से मेरा नाश निश्चित ही होने वाला है।
३६. उच्चैः पदादयं वीरः , पातयत्येव मां किल।
शीर्षादस्य पपाताध , इतीवालकवेष्टनम् ॥
'यह वीर बाहुबली मुझे निश्चित ही ऊंचे स्थान से नीचे गिरा देगा'- यह सोचकर दत की पगड़ी सिर से नीचे आ गिरी।
४०. .
अस्मान निर्वसनानेवं , मा पश्यन्तु सभासदाः । इतीवास्य ह्रिया मग्नं, रोमभिः स्वेदपाथसि ॥
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'सभासद हमें निर्वस्त्र न देखें'- इस · लज्जा से दूत के रोएं पसीने के पानी में डूब गए।
.. ४१. निर्वारिरिव कासारो , निःपत्र इव पादपः ।
निस्तेजा इव शीतांशुः , स सभ्यैरप्यदृश्यत ॥
सभासदों ने दूत को बिना पानी वाले तालाब, बिना पत्तों वाले वृक्ष और निस्तेज चन्द्रमा की तरह देखा।
४२. आयातः केन मार्गेण , केन यास्यामि वर्मना।
___ इत्यूहिनं त्वमुञ्चस्तं , करे धृत्वा बहिर्जनाः ॥
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'मैं यहाँ किस मार्ग से आया था और किस मार्ग से जाऊंगा'-इस प्रकार तर्कणा करने वाले दूत को लोगों ने हाथ पकड़ कर बाहर निकाल दिया।
४३. पञ्चास्यादिव सारंगः , सर्पवक्त्रादिवोन्दुरः।
आदाय जीवितं सोथ , निर्गतो राजमन्दिरात् ॥
जैसे सिंह के मुंह से निकला हुआ हरिण और सर्प के मुंह से निकला हुआ उंदर अपनी
१. अलकवेष्टनम्-पगडी।