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तृतीयः सर्गः
५७ जान बचाकर भाग जाता है, वैसे ही वह दूत भी अपनी जान बचाकर राज-प्रासाद से निकल भागा। .
४४. वीरविग्रहवृत्तान्तमेघागमजलावहा ।
दूतश्रवणपाथोधितीरसत्वरगामिनी ॥ ४५. लोकानां मुखशैलानात् , पतन्ती विस्तृता पुरः।
प्रवृत्तितटिनी साथ , प्रससार भुवस्तले ॥
-युग्मम् ।
वीरों (भरत-बाहुबली) की युद्ध-चर्चा रूपी वर्षा के जल से पूर्ण, दूत के कान रूपी समुद्र-तट की ओर शीघ्रता से गतिशील, लोगों के मुख रूपी पर्वत-शिखर से गिरकर आगे से आगे बढ़ती हुई वह युद्ध-चर्चा रूपी नदी समूचे भूतल पर फैल गई।
४६. दूतत्वं भरतेशस्य , कृतं बाहुबलेः पुरः। .
मम कीत्तिश्चिरं स्थाष्णुरित्यामोदमुवाह सः ॥
दूत यह सोचकर प्रसन्न हुआ कि 'मैंने बाहुबली के समक्ष महाराज भरत का दूतत्व किया है, इसलिए मेरी कीर्ति चिरकाल तक स्थायी रहेगी ।'
४७. अमन्दानन्दमेदस्विमानसः पुरवीथिषु ।
' सञ्चरन्निति वीराणां , गिरं शुश्राव दूरतः ॥
अत्यन्त आनन्द से भरे-पूरे मन वाले दूत ने नगरी के मार्गों से बढ़ते हुए दूर से वीरों की ये बातें सुनीं.
४८. वयं वीरा अयं स्वामी , न यावत् प्रस्तुतो रणः।
अस्मद्भाग्यरिवाकृष्ट , इदानी स उपस्थितः ।।
जब तक युद्ध प्रस्तुत नहीं होता तब तक हम इतना मात्र कहते रहते हैं कि हम वीर हैं और ये हमारे स्वामी हैं। आज युद्ध का अवसर प्रस्तुत हुआ है, मानो कि वह हमारे भाग्य से आकृष्ट होकर आया हो ।
४६. कीनाशा नामिव द्रव्यमस्माकमफलं बलम् ।
इति चिन्तयतामद्य , प्रस्तुतोऽयं रणोत्सवः ॥
१. कीनाश:- कंजूस (कीनाशस्तद्धनः क्षुद्रकदर्यदृढमुष्टयः-अभि० ३।३२)