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.. भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'जैसे कृपण व्यक्तियों का धन फलदायी नहीं होता वैसे ही हमारी शक्ति भी (युद्ध के बिना) अफल ही रही'-इस प्रकार चिन्तन करने वालों के समक्ष आज यह रणोत्सव प्रस्तुत हुआ है।
५०. स वीरो यस्य शस्त्राप्रैः , सवणः करणो रणे।
स्वर्ण तदेव यद् वन्हौ , विशुद्धं निहतं धनैः ।।
वीर वही है, रणांगण में जिसके शरीर में घाव हुए हों। स्वर्ण वही है जो अग्नि में तपकर धन से आहत हो।
५१. अद्यप्रति वो भारो, निरूहे वपुषा च नः ।
दीयतां तद्भतिर्नस्तत् , तेऽस्त्राणीत्युदतेजयन् ॥
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'आज तक हमने अपने शरीर से तुम्हारा (अस्त्रों का) भार वहन किया है। तुम हमें उसका मूल्य चुकाओ'—यह सोचकर ने वीर अपने-अपने अस्त्रों को तीक्ष्ण करने लगे।
५२. अयमभ्यधिको हीनः , स्वामिकृत्यकरस्त्वयम् । .
विग्रहादेव वीराणां , पत्युर्ज्ञानं भवेदिति ॥
'यह बहुत हीन है', 'यह केवल स्वामी का कार्य करने वाला है' तथा 'यह वीरों में अग्रणी है'-इसकी जानकारी युद्ध से ही हो सकती है।
५३. यच्छराः करिकुम्भेषु , निपेतुः षट्पदा इव ।
तैः किञ्चित् स्वस्वामिनोग्रे , दर्यते शौर्यवत्तया ॥
जो बाण हाथी के कुंभस्थल पर भ्रमरों की भाँति गिरते थे, वे अपनी बलवत्ता के कारण स्वामी के समक्ष कुछ दर्प कर रहे हैं।
५४. क्षरतक्षितिजधाराक्त, रूषितं रणरेणुभिः ।।
वैरिभिर्यन् मुखं वीक्ष्यं , वीरमानी स एव हि ॥
वही वीरमानी है जिसका मुँह झरती हुई रुधिर की धारा से भीगा हुआ है, जो युद्ध के रजकणों से मटमैला हो गया है और जो शत्रुओं द्वारा देखने योग्य है।
१. भूतिः-मूल्य (भृतिः स्याद् निष्क्रयः पण:-अभि० ३।२६)