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________________ तृतीयः सर्गः ५५. ५६. ५७. —युग्मम् । हुए स्वामी के समक्ष वे ही वीर धन्य माने जाते हैं जो हस्तिचर्म से प्रास्तृत, मरे हाथियों के सूंड और कुंभस्थल रूपी उपधानों (तकियों) से सम्पन्न, रक्त-रंजित युद्धभूमी रूपी शय्या में बाणों के मंडप के नीचे, बाणों के पंख -समूह से वीजित शरीर को स्थापित कर सोते हैं । ५८. शुण्डागण्डोपधानां द्विपचर्मास्तराञ्चिते । संपरा महीतल्पे, क्षतजन्माङ्गरागिण || नाराच मण्डपस्याधो, यैर्व पुर्न्यस्य शय्यते । वीजित: पत्र पत्रौधैर्धन्यास्ते स्वामिनः पुरः ॥ ५६. धिगस्तु तं रणे नाथं, यो विहाय गृहं गतः । निमीलिमुखं तस्य पश्येत् कान्ता कथं पुनः ॥ धिक्कार है उसको जो युद्ध में स्वामी को छोड़कर घर भाग जाता है । लज्जा से सिकुड़ा हुआ उसका मुँह उसकी भार्या फिर कैसे देखेगी ६०. , कुलदेव्यो निमित्तज्ञाः, सत्यमस्मान् वदन्त्विति । एतस्मिन् सङ्गरे विघ्नो, न भावी सन्धिलक्षणः ? कुलदेवियां और ज्योतिर्विद् हमें यह सही-सही बताएं कि इस संग्राम में कोई सन्धि रूपी विघ्न तो उपस्थित नहीं होगा ? इतो बाहुबलिवर, इतो भरतभूपतिः । इतो वीरा वयं कर्मसाक्षी' साक्षी भविष्यति ॥ अमीषां कर्मषु क्रोध भरलोहितचक्षुषाम् । भानुरेवास्य विश्वस्य शुभाशुभविलोकिता ॥ ५६ 1 —युग्मम् । इधर वीर बाहुबली, उधर महाराज भरत और इधर हम वीर हैं । सूर्य ही हमारा १. उपधानं - तकिया (उच्छीर्षकमुपाद् धानबहौं – अभि० ३ | ३४७ ) २. संपराय: - युद्ध (अभ्यामर्दः सम्परायः - अभि० ३ | ४६२ ) ३. क्षतजन्मनः – रक्तस्य, अंगरागः - विलेपनं अस्ति यस्मिन् तत् क्षतजन्मांगरागि, तस्मिन् । ४. नाराच: — बाण (नाराच एषणश्च सः - अभि० ३ | ४४३ ) ५. पत्नी - बाण ( पत्नीष्वजिह, मग – अभि० ३।४४२ ) ६. कर्मसाक्षी - सूर्य (हरिदश्वो जगत्कर्मसाक्षी – अभि० २।१२ )
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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