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पञ्चमः सर्गः
१.
नपनियोगमवाप्य बलाधिपः , स चतुरं चतुरङ्गचमविधिम । रचयतिस्म रणाय विनिर्मिताऽहितदलं तदलयनिदेशवान् ।
भरत के आज्ञाकारी सेनापति सुषेण ने भरत की आज्ञा प्राप्त कर शत्रुओं का दलन करने वाली चतुरंग सेना को युद्ध के लिए कुशलता से सज्जित किया।
२.
करटिभिनिपतन्मदनिर्भरै-गिरिवरैरिव रेभरवाहिभिः ।। इममुपास्तुमितं किल हेतुतो , नरवरं रवरञ्जितवारिदैः ॥
हाथी किसी हेतु से महाराज भरत की उपासना करने के लिए उपस्थित हुए। उनके कपोलों से मद बह रहा या। वे मेरु पर्वत की भांति स्वर्ण के आभूषणों से अलंकृत थे और मेघों से भी अधिक तेज गर्जारव कर रहे थे।
३.
स तुरगविविधर्ममुदेगुणत्रजवर्जवन दयैरिव । अनुहरद्भिरितरगणेयता , सुरहयं रहयन्तमवद्यताम् ॥ .
सेनापति विविध प्रकार के अनगिन घोड़ों को देखकर प्रसन्न हुआ। वे घोड़े गुण समूह के आवास, मन की तरह तीव्र गति वाले और अधमता को छोड़ने वाले इन्द्र के घोड़े उच्चैःश्रवा का अनुकरण करने वाले थे।
४.
अथ रथेषु रथाङ्गसनाथतां , परिचचार च चारदृगेष सः । अनुहरत्सु ततायतविस्तरैः , कुलवरं लवरञ्जितलोचनम् ॥
गुप्तचर की भांति सूक्ष्म दृष्टिवाले सेनापति सुषेण ने रथसेना का दायित्व संभाला। वे रथ अपनी विशालता, लम्बाई और विस्तार के कारण क्षण भर के लिए नयनों को रंजित करने वाले बड़े बड़े गृहों का अनुकरण कर रहे थे। १. इस सर्ग में प्रयुक्त श्लेष के अर्थों के लिए देखें-परिशिष्ट नम्बर ३ में उल्लिखित पंजिका
के पांचवें सर्ग का विवरण ।