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कथावस्तु
भरत अयोध्या पहुंचे। जनता ने उनका स्वागत किया। वे पूर्ववत् राज्य-संचालन में लग गए।
बाहबली कायोत्सर्ग में लीन थे। उनका मन उपशान्त था। बारह महीने बीत गए। लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो रही थी। उनके मन में 'अहं' का अंकुर विद्यमान था। वे उसे नष्ट नहीं कर पा रहे थे । भगवान् ऋषभ ने यह जाना । उन्होंने अपनी प्रवजित पुत्रियों-ब्राह्मी और सुन्दरी को वहां भेजा। उनके कथन से प्रतिबद्ध होकर बाहबली ने अहं के अंकर को उखाड फैका । विनय के प्रवाह में वे निमग्न हो गए। उन्होंने अपने छोटे भाइयों, जो पहले ही प्रवजित हो चुके थे, को वन्दना करने के लिए एक कदम रखा। वे उसी क्षण प्रबुद्ध हो गए। उन्हें निरावरण ज्ञान की उपलब्धि हो गई। वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन गए । देवताओं ने यह संवाद भरत को दिया।
एक बार भरत चक्रवर्ती कांच महल में अपने शरीर का मंडन कर रहे थे । आभूषणों से अलंकृत शरीर की शोभा से वे आनन्दित हो उठे। कुछ क्षणों के बाद उन्होंने आभूषण उतार दिए । आभूषणों के बिना शरीर की अशोभा को देख वे छटपटा गए । उनका मन वैराग्य से भर गया। वे आत्म-भावना में आरोहण करने लगे। परिणामों की विशुद्धि बढ़ती गई। उनके घाती-कर्म क्षीण हुए और वे सर्वज्ञ बन गए। देवताओं ने उनका 'केवलज्ञान-महोत्सव' किया। वे अभिनिष्क्रमण के लिए उद्यत हए । उनके साथ हजारों राजे प्रवजित हुए। उनका राज्य-भार उनके ज्येष्ठ पुत्र सूर्ययशा ने संभाला।
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