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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम
स्पष्ट दीख रहा था। उसने सारे अंगों पर आभूषण धारण कर रखे थे। उसने वासगृह (शयनकक्ष) में आकर अपने पति की आँखों को आनन्दित किया।
३४. वितन्वती काचिदपूर्वभूषाविधि विलोक्य स्फुटमात्मदर्श ।
सखा न चेत् प्रीतिपराङ्मुखस्ते , कि तमुनेनवमलज्जि सख्या ॥
'एक सुन्दरी कांच में देख-देखकर विशेष सज्जा कर रही थी। 'यदि तुम्हारा पति तुम्हारे प्रेम से पराङ्मुख नहीं है तो फिर इससे क्या-यह कहकर उसकी सखी ने उसे लज्जित किया।
३५. प्रियालि ! यादृक् प्रणयो न तादृग , भूषाविधिर्धाजति भामिनीनाम् ।
भूषाविधौ.रूपविधौ वितर्क , करोति यः स प्रिय एव नाऽत्र ॥
'प्रिय सखी! स्त्रियों का प्रेम जैसी शोभा पाता है वैसी शोभां उनकी सज्जा नहीं पाती। जो प्रेमी सज्जा और रूप की वितर्कणा करता है, वह वास्तव में प्रेमी ही नहीं होता।'
३६. प्रिये ! त्वदीया पदवी विशेषान्मयाद्य दृष्टा त्वमिता कथं न ।
निद्राऽपि ते सख्यमलवमाना , प्राममुदत् कश्चिदितीत्वरी' च ॥
'प्रिये ! आज मैं विशेष रूप से तुम्हारा मार्ग देखता रहा। तुम क्यों नहीं पाई ? निद्रा ने भी तुम्हारी मित्रता नहीं छोड़ी, नींद भी नहीं आई'---यह कहते हुए किसी 'रसिक ने अभिसारिका को प्रसन्न किया। . ,
३७. इति प्रियं सागसमीरयन्ती , जहास काचिद् दयिता कथं न।
श्लिष्टा त्वया हारमपास्य हार , मुक्ताङ्कितं ते हृदयं यदस्ति ।
किसी प्रिया ने अपने अपराधी पति का उपहास करते हुए कहा-'हा ! तुमने वल्लभा का आश्लेष हार को दूर रखकर क्यों नहीं किया ? क्योंकि तुम्हारा हृदय मोतियों से 'चिह्नित है।' (इससे लगता है कि तुमने किसी दूसरी स्त्री का आश्लेष किया है।)
३८. त्वयाऽथवा तत्स्मृतये न लुप्तं , तद् दृष्टमागः स्वदृशा तवैतत् ॥
प्रीणन्ति यूनो हि रताङ्कितानि', रणे भटस्येव गजाभिघाताः ॥ १. इत्वरी–कुलटा (असतीत्वरी-अभि० ३।१९२) २. हा-खेदे। ३. अरं-अत्यर्थम् । ४. आगस्–अपराध (मन्तुळलीकं विप्रियागसी-अभि० ३।४०८). ५. रतम्-मैथुन (सुरतं मोहनं रतम्-अभि० ३।२००)