SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टमः सर्गः १५७ अथवा तुमने अपने प्रिया. को स्मृति रखने के लिए अपने हृदय पर लगे मुक्ता-चिह्नों को नहीं मिटाया। मैंने तुम्हारा यह अपराध अपनी आँखों से देख लिया है। क्योंकि जैसे रणभूमि में योद्धाओं को गज-प्रहार संतोष देते हैं, वैसे ही युवकों को संभोग-चिह्न संतोष प्रदान करते हैं। ३६. श्लेषात् तवैवाहनि वामनेत्रे ! , ममेदृशं जातमदो हि वक्षः । त्वत्तः परा का मम वल्लभास्ति , प्रामोदि कापीति निगद्य नेत्रा ॥ 'हे वामनेत्रे ! दिन में तुम्हारा आश्लेष लेने के कारण ही मेरा यह वक्ष इस प्रकार हो गया है । तुम्हारे से ज्यादा मुझे कौन प्रिय है'-यह कहते हुए नायक ने अपनी प्रिया को प्रमुदित किया। ४०. यदीय नामापि करोति दूरादङ्ग समग्रं पुलकाङ्कुराढ्यम् । यदागमः स्विन्नमपीति तस्मिन् , मानः कथं काचिदुवाश कान्तम् ।। 'जिसका नाम मात्र दूर से ही समूचे शरीर को रोमांचित कर देता है और जिसका आगमन शरीर को पसीने से तरबतर कर देता है, उसके प्रति कैसा अहंकार'-यह कह कर कामिनी ने अपने प्रेमी को वश में कर लिया । ४१. प्रसूनशय्या नवकण्टकालेररुतुदा रोदनसन्निकाशः । ___ अयं विनोदो भयदं विलासगृहं भवेदालि ! विना प्रियं मे ॥ ४२. सख्याः पुरः स्वैरमुदीरिताया भिति प्रियायामपराधसत्ता। विलासिना केनचन न्यवारि , स्वचेतसो व्योम्न इव द्रुवल्ली ॥ -युग्मम् । उस कामिनी ने अपनी सखी से कहा-'हे सखी ! प्रियतम के बिना यह कुसुम-शय्या अभिनव कंटक-पंक्ति से भी अधिक मर्मभेदी है। यह विनोद रुदन के समान और यह विलासगृह भयप्रद है।' अपनी सती के समक्ष इस प्रकार स्वतन्त्रता पूर्वक कहने पर पति ने अपनी प्रिया के अपराधों को मन से वैसे ही निकाल दिया जैसे आकाश से वृक्षलता निकलती है। ४३. विश्वाधिराजः कदलीविलासगेहं विवेशाथ विकीर्णपुष्पम् । लोकत्रयोस्त्रंणविशेषितश्रिमृगेक्षणारत्नविभूषितं सः ॥ १. पञ्जिकायां-स्वरमुदीरयन्त्याम्, उदीरितायां वा पाठः ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy