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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ४४, रत्नप्रदीपप्रहतान्धकारं , चन्द्रोदयद्योतितमध्यदेशम् । दंदह्यमानागुरुधूमधम्रधामाङ्कितं पुण्यवतां च योग्यम् ॥
-युग्मम्।
अब चक्रवर्ती ने केलों से बने क्रोडा-गृह में प्रवेश किया। वह क्रीडा-गृह तीनों लोकों के नारी समूह की विशेषताओं से विशेषित स्त्री-रत्न से शोभित था। उसमें चारों ओर 'फूल बिखरे पड़े थे। वह रत्न-प्रदीपों से जगमगा रहा था। उसका मध्यभाग चंद्रमा के उदय से देदीप्यमान था। वहाँ अगरु धूप जल रहा था और उसका आँ चारों ओर फैल रहा था। वह पुण्यशाली व्यक्तियों के निवास-योग्य था।
४५. तयोविलासा विविधाः प्रसस्त्र , रम्भामरुन्नायकयोर्यथाऽत्र । . __ शृङ्गारजन्मक्षितिराजरत्योर्यथा प्रसन्नत्वपयोधिचन्द्राः॥ . .
उस विलासगृह में भरत दंपति के विविध विलास, जो प्रसन्नता रूपी समुद्र की वेलावृद्धि के लिए चंद्रमा के समान थे,.सभी ओर . उसी प्रकार फैल गए जैसे इन्द्र और इन्द्राणी तथा कामदेव और रति के विलास फैलते हैं।
४६. अन्योन्यसंपर्करसातिरेकाद् , युवद्वयो तं समयं विवेद ।
सुधामयं सौख्यमयं प्रमोदमयं मनोभूमयमेकतानम् ।।
परस्पर मिलन (संभोग) से होने वाले रसातिरेक से दंपतियों ने बीतने वाले समय को सुधामय, सुखमय, प्रमोदमय, कामदेवमय और एकतान माना।
४७. प्रसन्नतेवं जगति प्रवत्ता , मयि प्रभो करविणीष नेति ।
प्रसन्नताये सितरोचिरासां , ससर्ज पीयूषभरं करेण ॥
चन्द्रमा ने सोचा-'मेरे स्वामी हो जाने पर जगत् में प्रसन्नता फैल गई किन्तु कुमुदिनियों में अभी प्रसन्नता नहीं फैली।' तब उनकी प्रसन्नता के लिए चन्द्रमा ने अपनी किरणों से अमृत बरसाया ।
४८. शृङ्गारदध्नो नवनीतपिण्डो, मुस्तामणिः किं त्रिपुरारिमौले ?
स्तनः खलक्ष्म्याः किमु चन्दनाः , क्रीडातटाकः प्रमदस्य किंवा ?
१. त्रिपुरारि:-महादेव (अभि० २।११४) २.प्रमदः-आनन्द।