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________________ द्वादशः सर्गः २४१ 'महान् सेनाओं के समूह- से अतिभीष्म इस बाहुबली को जीतने पर ही मैं कृती (निपुण) कहला सकूँगा। उसको जीत लेने पर ही छह खंडों का यह साम्राज्य मुझे संतुष्ट कर सकेगा, अन्यथा नहीं।' ६६. इत्थं गिरं व्याहरति क्षितीशे , निःस्वाननादाः पुरतः प्रसस्त्र । रजस्वलाश्चाप्यभवन् दिशो द्राग , भूभामिनी कम्पमपि व्यधाषीत् ॥ भरत चक्रवर्ती यों कह ही रहे थे कि इतने में ही युद्धवाद्यों के शब्द चारों ओर फैल गए। सारी दिशाएं शीघ्र ही रजस्वला हो गईं-रजों से व्याप्त हो गई और पथ्वी रूपी भामिनी कांपने लगी। '६७. ततो मुहूर्तेन रथाश्वनागपत्तिध्वनिः प्रादुरभूत् समन्तात् । ततः परं बाहुबलेनिदेशान्नरेन्द्रमागत्य चरास्तदोचुः॥ कुछ समय पश्चात् रथ, अश्व, हाथी और पैदल-इन चारों सेनाओं की ध्वनि चारों ओर से प्रगट हो गई। उसके बाद बाहुबली की आज्ञा से गुप्तचर भरत के पास आकर बोले ६८. अस्मन्मुखेन क्षितिराजराज ! , त्वां पृच्छतीति प्रभुरस्मदीयः। संकेतिता क्वापि रणस्य भूमिर्यत्रावयोः सङ्गम एष भावी ?, 'हे चक्रवत्तिन् ! हमारे स्वामी बाहुबली हमारे मुख से आपको यह पूछ रहे हैं कि क्या रणभूमी का कहीं निश्चय किया है, जहाँ कि हम दोनों-(भरत-बाहुबली) का यह संगम होगा?' ६९. अस्मक्षितीशः समराय राजन् ! , भटान् स्वकीयांस्त्वरते विशेषात् । महाबलाः.प्रस्तुतयुद्धकेलि , कर्तु यदुत्साहरसं धरन्ति । 'राजन् ! हमारे राजा बाहुबली अपने सुभटों को संग्राम के लिए विशेष रूप से त्वरित कर रहे हैं। उनके महान् पराक्रमी सुभट प्रस्तुत युद्ध-क्रीड़ा करने के लिए उत्साह-रस को धारण कर रहे हैं।' ७०. त्वं पश्य राजन् ! प्रभुरागतो नः , सैन्यरमेयः परिवारितोऽयम् । यदीयमारान्नमतीह किञ्चित् , सर्वसहा खेदभरं धरन्ती ।। १. सर्वसहा—पृथ्वी (सर्वसहा रत्नगर्भा-अभि० ४।३)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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