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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'राजन् ! आप देखें कि हमारा स्वामी बाहुबली अपनी अमेय सेनाओं से परिवृत होकर आ ही रहे हैं । उनके सैन्यभार के कारण खेद को धारण करती हुई पृथ्वी भी कुछ दबी जा रही है।'
७१. एतेषु विश्रान्तवचस्सु चक्री , शशंस तेभ्यः समरोद्धतेभ्यः।
सुपर्वसिन्धु'हतीयमारात् , सा साक्षिणी नौ कलहस्य चेति ॥
उन दूतों के मौन हो जाने पर चक्रवर्ती भरत ने समर के लिए उद्धत उन गुप्तचरों से कहा-'यहां पास में ही गंगा नदी बह रही है। वही हम दोनों के युद्ध के लिए साक्षी होगी।'
७२. तत्रैष युष्मत्प्रभुरातनोतु , सेनानिवेशं विषयस्य सन्धौ। ..
तत्राभ्युपेताहमपि प्रभाते , त्यक्ताऽवहित्थो भविता रणों नौ ॥ .
'तुम्हारा स्वामी वहां देश की सीमा पर अपनी सेना का पड़ाव डाले । मैं प्रातःकाल ही वहाँ आ पहुंचूंगा। वहां आमने-सामने हमारा युद्ध होगा।'
७३. एवं व्याहृत्य चारान् क्षितिपतिरतुलप्रोल्लसत्शौर्यधैर्यः,
प्रोत्साह्य क्षोणिपालान् पुनरपि भरतः पूर्णपुण्योदयाढ्यः । प्रासादेऽभ्येत्य तीर्थेश्वरचरणसरोजन्मसेवां च कृत्वा, सायं संकेतितां तां प्रबलबलवृतोऽलंकरोतिस्म भूमिम् ॥
कमनीय शौर्य और धैर्य तथा पूर्ण पुण्योदय वाले महाराज भरत ने बाहुबली के गुप्तचरों को इस प्रकार कह, अपने राजाओं को पुनः प्रोत्साहित किया। उन्होंने ऋषभदेव के मंदिर में आकर ऋषभदेव के चरण-कमलों की उपासना की और उसी दिन सायंकाल के समय प्रबल सेनाओं से युक्त होकर संकेतित रणभूमी को अलंकृत किया।
-इति रणोत्साहदीपनो नाम द्वादशः सर्गः
१. सुपर्वसिन्धुः-गंगा। २. विषयः--देश (विषयस्तूपवर्तनम्-अभि० ४।१३) ३, त्यक्ता अवहित्था-गोपनं यत्र स, रण: (ऽवहित्थाजकारगोपनम्-अभि० २।२२८)