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________________ २४० - भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् आपके मन में बाहुबली के विजय का विमर्श होता है। क्या यह असामयिक बात नहीं है ?' ६१. प्रभो ! त्वदीयां समरस्यनीति , विद्मो वयं माणवकान्निधानात् । मणेः परीक्षामिव रत्नकारास्तत्राविदः सन्ति भटाश्च तस्य ॥ 'स्वामिन् ! हम आपकी रणनीति को माणवक निधान से वैसे ही जान लेते हैं जैसे जौहरी मणि की परीक्षा कर उसे जान लेता है । किन्तु बाहुबली के सुभट इन सारी चीजों को नहीं जानते।' ६२. निःसंशयेऽर्थे किमु संशयालु , क्रियेत चेतः क्षितिचक्रशक !। .. विश्वकनेत्रस्य विकर्तनस्य', का कौशिक स्येह गणेयताऽपि ॥. 'हे चक्रवत्तिन् ! आप असंदिग्ध अर्थ के प्रति अपने मन को इतना संशयशील क्यों बना लेते हैं ? विश्व के एकमात्र चक्षु सूर्य के समक्ष उलूक की क्या गणना हो सकती है ?' ६३. इति प्रगल्भां गिरमस्य राजाप्याकर्ण्य सैन्यप्रभवे शशंस । कि वर्ण्यते स्वीयबलं पुरो मे , नाहं परोक्षः खलु तस्य किञ्चित् ॥ 'सेनापति सुषेण की निपुणता भरी बातों को सुनकर महाराज भरत ने उसे कहा'तुम मेरे समक्ष अपनी सेना की क्या प्रशंसा कर रहे हो? मैं उससे किंचित् भी अजान नहीं हूँ।' ६४. त्वमेव सैन्ये सकलेऽग्रगामी , भव ध्वजिन्याः पतिरुद्धतो यत् । एनं पुरस्कृत्य नृपाश्च यूयं , मृधे प्रवर्तध्वमगा इवर्तुम् ॥ 'तुम ही सारी सेना के अग्रगामी बनो, क्योंकि तुम ही उसके प्रबल सेनापति हो । हे राजाओ ! तुम सभी इस (सुषेण) को आगे कर रण में प्रवर्तित हों, जैसे ऋतु के अनुसार वृक्ष प्रवर्तित होते हैं।' ६५. कृती जितेऽहं वसुधाधिराजेऽमुष्मिन् महासैन्यभरातिभीष्मे । षट्खण्डलक्ष्मीरपि मे तदेव , संतोषपोषाय मुहुर्भवित्री ॥ १. विकर्तन:-सूर्य (ग्रहाब्जिनीगोद्युपतिर्विकर्तन:-अभि० २।११) . २. कौशिकः-उलूक (कौशिकोलूकपेचका:-अभि० ४।३६०) ३. मृधं-युद्ध (संस्फोट: कलहो मृधं-- अभि० ३।४६०) ४. अगः-वृक्ष (वृक्षोऽग: शिखरी-अभि० ४।१८०)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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