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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'राजन् ! उस कानन के अन्तराल में युग के आदिकर्ता भगवान् ऋषभ का एक विशाल विहार (मन्दिर) है। वह स्वर्ण की भाँति चमकीला है । उसे देखकर यह वितर्क होता है कि क्या यह स्वर्णपर्वत (मेरुपर्वत) का वज्र से तोड़ा हुआ शिखर का खण्ड तो नहीं है ?
७१. महामणिस्तम्भविराजितश्रीः , कल्याण'ताडङ्क' इवायमस्ति ।
आरामलक्ष्म्यास्तरुराजराजिविराजमानावयवाङ्गयष्टेः ॥
'राजन् । महान् रत्नमय स्तम्भों की शोभा से युक्त यह विहार कानन रूपी लक्ष्मी के स्वर्णमय कुंडल के समान है । यह काननलक्ष्मी श्रेष्ठ वृक्षों की श्रेणी से शोभित अवयवों से युक्त शरीर वाली है।'
७२. नवीनचामीकरनिर्मलामा , विहारभित्तिर्म कुरेकलीलाम् ।
आत्मस्वरूपव्यवलोकनाय , धत्तेतरां काननभूरुहाणाम् ॥ .
'नये स्वर्ण की निर्मल प्राभा वाली विहार की भित्ति दर्पण की शोभा को विशेष रूप से धारण कर रही है, जिससे कि कानन के वृक्ष अपना स्वरूप उसमें देख सकें ।'
७३. जीवो यथा पुण्यभरेण देहो , यथात्मनाब्जेन यथा तटाकः।
युगादिबिम्बेन तथायमुच्चैः , प्रासादराजः परिभाति राजन् ! ॥
'राजन् ! यह श्रेष्ठ विहार ऋषभदेव की प्रतिमा से वसे ही अत्यधिक शोभित हो रहा है जैसे पुण्य के अतिशय से जीव, आत्मा से देह और कमल से तालाब सुशोभित होता है।'
७४. मुक्तावली काननराजलक्ष्म्या , मन्दाकिनी कण्ठगतेव भाति ।
चरिष्णुचन्द्रातपगौरवीचिच्छलाद हसन्त्या इव शीतकान्तिम् ॥
'उस कानन के निकट गंगा नदी बहती है। वह इस प्रकार शोभित होती है मानो कि वह काननराज की लक्ष्मी के गले का मुक्तावली हार हो। वह नदी चमकती हुई चाँदनी के समान गौर लहरों के मिष से चन्द्रमा का उपहास कर रही हो-ऐसी लगती है।'
१. कल्याणं-स्वर्ण (कल्याणं कनकं-अभि० ४।१०६) २. ताडङ्क:-कुंडल (ताडंकस्तु ताडपत्रं कुण्डलं-अभि० ३।३२०) ३. शीतकान्ति:-चन्द्रमा ।
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