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________________ नवमः सर्गः ७५. डिण्डोरपिण्डय' इव राजहंसा , विभान्ति यत्तीरगता नितान्तम् । सेनानिवेशस्तव तत्र राजन् ! , सदोचितः पुण्यवतां यथा स्वः ॥ 'राजन् ! उस नदी के तट पर बैठे हुए राजहंस फेन के समूह की भांति अत्यन्त शोभित होते हैं । देव ! आपकी सेना के पड़ाव के लिए वह स्थान वैसे ही नितान्त उचित है जैसे पुण्यशाली के लिए स्वर्गलोक उचित होता है।' ७६. इत्थं वचः सैन्यपतेनिशम्य , चचाल राजा सह सैन्यलोकः। प्रासादलक्ष्मीकमनीयताढ्यं , द्रष्टुं तमाराममतस्तदेव ॥ सुषेण सेनापति की यह बात सुनकर, मन्दिर रूपी लक्ष्मी की कमनीयता से सम्पन्न उस कानन को देखने के लिए, महाराज भरत अपनी सेना के साथ तत्काल चल पड़े। ७७. वनं सप्रासादं नृपतिरुपगन्तुं सह बलः, कृतोद्योगः सागःक्षितिपतिमनःशल्यसदृशः । प्रतस्थे सैन्येन्द्राग्रसरपरिनुन्नः परभुवं, सुधीस्तादृक्कायें विमृशति न पुण्योदयरुचिः॥ उद्यमशील महाराज भरत ने शत्रु की भूमि में स्थित मन्दिर वाले उस कानन की ओर अपनी सेनाओं के साथ प्रस्थान किया। भरत अपराधी राजाओं के लिए मानसिक शल्य के समान थे। उनके आगे-आगे मार्गदर्शक के रूप में सेनापति चल रहा था। धर्म के उदय की अभिरुचि रखने वाला विद्वान् व्यक्ति ऐसा कार्य करने में कभी विमर्श नहीं करता।.. . . . . -इति बाहुबलिदेशसीमाप्रयाणो नाम नवमः सर्गः १. डिण्डीरपिण्डा:-फेनप्रकरा: (डिण्डीरोब्धिकफ: फेनो—अभि० ४११४३) २. स्व:-स्वर्ग। ३. सागःक्षितिपति''-सापराधभूपालहृदयशल्यतुल्यः । (अग:-अपराध) ४. परिनुन्न:-प्रेरितः । ५. पुण्योदयरुचि:-धर्माभ्युदयाभिलाषी (पुण्यं-धर्म:-अभि० ६।१५)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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