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पञ्चदशः सर्गः विद्याधरों के स्वामी महान् पराक्रमी महेन्द्र ने अपने मुद्गर से रत्नारि के शिर को, कच्चे घड़े की भांति, चूर-चूर कर डाला। ८४. ततो बाहुबलेगुह्यो', मितकेतुर्महाभुजः ।
सुगत्यनुगतो वायुसखो वह्निरिवागमत् ॥ बाहुबली की ओर से उनका निजी व्यक्ति महान् पराक्रमी 'मितकेतु' 'सुगति' के साथ युद्ध-स्थल में आया, जैसे वायु के साथ अग्नि आती है।
५५. ताभ्यां विद्याधरेन्द्राभ्यां , सैन्यं श्रीभरतेशितुः।
दैन्यमापादितं बाढं , किं हि चित्रं महौजसाम् ॥
मितकेतु और सुगति-ईन दोनों विद्याधर अधिपतियों ने चक्रवर्ती भरत की सेना में अत्यन्त दीनता पैदा कर दी। शक्तिशाली पुरुषों के लिए ऐसा कर देना कौन सी आश्चर्य की बात है ? ८६. त्याजिताः स्यन्दनं केचिद्धयं केचिद् द्विपञ्च के ।
संग्रामभुवमेके च , किं कर्तारो न हीदृशाः ? दोनों वीर योद्धाओं ने शत्रु-पक्ष के कुछ सुझटों को रथ, घोड़े और हाथी छोड़ने के लिए मजबूर कर डाला। कुछ सुभट रणभूमी छोड़कर भाग गए। इस प्रकार के पराक्रमी पुरुष क्या नहीं कर सकते ? . ८७. तयोविशिखसंदोहैः , पतद्भिः करिवर्मसु ।
चक्रिरे कामतीक्ष्णाप्रैः खाट्कारमुखरा दिशः॥ दोनों वीरों के धनुष्यों से निकले हुए अत्यन्त तीक्ष्ण अग्रवाले बाण हाथियों के कवच पर गिर रहे थे। उनके कारण दिशाएं 'खाट्कार' के शब्दों से मुखरित हो गई। ८८. मालवेश्वरमुख्यास्ते , महीनाथा रथाङ्गिनः।
अमूभ्यां व्याकुलीभूताः, श्येनाभ्यामिव पक्षिणः ॥ चक्रवर्ती के अधीनस्थ मालव देश के राजा इन दोनों से व्याकुल हो गए, जैसे पक्षी बाज से व्याकुल होते हैं। १९. निर्मोकादिव' संग्रामात् , कैश्चिन्नेशे भुजङ्गवत् ।
कैश्चिद् वीरवतं त्यक्तमौदार्यमिव तद्धनः ॥ १. गृह्यः–निजी व्यक्ति । १. निर्मोकः-सांप की केंचुली (निर्मोककञ्चुका:-अभि० ४।३८१) २. तद्धनः-कंजस (कीनाशस्तद्धनः क्षुद्र:-अभि० ३।३२)