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________________ ११६ भरतबाहुबलिमहाकान्यम् विमानों में निविष्ट, मंद-मंद गति से चलने वाले तथा कुतूहलवश आंखों को इधरउधर घुमाने वाले विद्याधर भूमि पर चलने वालों से अधिक मार्ग को नहीं लांघ सके। ३०. किडनी क्वणितकीर्णदिगन्तोमवम विरराज विमानः । चक्रनादमुखरैश्च शताङ्ग भूतलं तदुभयोः समताभूत् ॥ विमानों में बंधे हुए घुघुरू के शब्द दिशाओं के अन्त तक गूंज रहे थे। सारा आकाशा उन विमानों से शोभित हो रहा था । चक्कों के शब्द से मुखरित रथ पृथ्वी पर शोभित हो रहे थे। इस प्रकार आकाश और पृथ्वी में समानता थी। ३१. तं प्रयान्तमवलोक्य सुरस्त्री , काचिदम्बरगता गुणहृष्टा' । मौक्तिकरवचकार' विकीर्णैस्तारकरिव गत वमारात्॥ आकाश में खड़ी हुई किसी देवी ने प्रयाण करते हुए भरत को देखा और उनके गुण से प्रसन्न होकर उसने सर्वत्र मोती बिखेर दिए-उनका मोतियों से वर्धापन किया। वे मोती दूर से ऐसे लग रहे थे मानो कि वे भूमि पर तारे हों। ३२. अक्षतैः शुचितमैरवकीर्णः" , सोऽक्षतप्रियसताभिरुपेतः । गोपुरं सपदि पौरवधूभिवृष्टिभिगिरिरिवाम्बुपृषद्भिः ॥ जैसे पर्वत वर्षा की बूंदों से अवकीर्ण होता है वैसे ही पति और पुत्रवाली नगरवधूओं द्वारा अत्यन्त धवल अक्षतों से वर्धापित होते हुए महाराज भरत शीघ्र ही नगरी के द्वार पर पहुँचे। १. किङ्किनी–घुघुरू (किङ्कणी (किङ्किनी) क्षुद्रघण्टिका-अभि० ३।३२६) २. शताङ्गः-रथ (शताङ्गः स्यन्दनो रथ:-अभि०३।४१५) ३. गुणहृष्टा-रूपादिभिः गुणैः हृष्टा-प्रीता। ४. अवचकार-संवर्द्धयामास ।। ५. आरात्-दूरात् । . ६. अक्षताः-खील (लाजाः स्युः पुनरक्षता:-अभि० ३।६५) ७. अवकीर्ण:-वर्धापितः। ८. उपेतः-समागतवान् । ६. गोपुरं–नगर का द्वार (पुरे गोपुरम्-अभि० ४।४७) १०. पृषद्-बूंद (बिन्दो पृषत्पृषतविप्रष:-अभि० ४।१५५)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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