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कथावस्तु
चक्रवर्ती भरत की सेना आगे बढ़ी। मंगल-पाठकों ने महाराज भरत का यशोगान किया। उस विशाल सेना के पीछे-पीछे अपनी-अपनी चतुरंग सेना के साथ बत्तीस हजार राजे चल रहे थे। वे उत्तरोत्तर उत्कृष्ट ऐश्वर्य के द्वारा सबको विस्मित करने वाले थे। सेना को देख नगरवासी लोगों ने विविध प्रकार की वितर्कणाएं की। किसी ने भरत की लालसा को बुरा बताया तो किसी ने बाहुबली के अहं पर चोट की। महाराज भरत नगरी के द्वार पर पहुंचे। नगरवधुओं ने भरत का वर्धापन किया। चारों प्रोर वाद्य की ध्वनि गंज उठी। मंगल-पाठकों के आशीर्वचनों से सारा वातावरण ध्वनित हो गया । भरत के पीछे-पीछे विशाल सेना चल रही थी। उसे देखकर नगरवासियों के मन में अनेक वितर्क उत्पन्न हए। उन्होंने युद्ध को अवांछनीय बताते हुए कहा—'राजे राजसिक वृत्ति वाले होते हैं। सत्ता और अहं से उनके नेत्र विघृणित रहते हैं। जहां उनका प्रभुत्व नहीं होता, वहां वे अपना प्रभुत्व थोपते हैं । भरत अपने भाई से युद्ध लड़ना क्यों चाहते हैं। बाहबली अपने बड़े भाई को प्रणाम क्यों नहीं करता ? इन दोनों के युद्ध से हजारों-हजारों व्यक्ति मारे जायेंगे।' लोगों के मन वितर्कों से भर गए । महाराज भरत के अन्तःपुर की रानियां एक सुन्दर उपवन में एकत्रित हो चुकी थीं। भरत उपवन के पास आए। मालव देश के नरपति के हाथ का सहारा ले वे हाथी से नीचे उतरे। सभी राजे अपने-अपने वाहनों से उतरे और उपवन में क्रीड़ा करते चले गए।