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द्वितीयः सर्गः
१. अथान तो बाहुबलेनिविष्टो , विवक्षुरप्याह न किञ्चिदेषः ।
तेजोभिरेतस्य विधूणितात्मा' , नृपा महोभियविलङ्घनीयाः ॥ बाहुबली के सामने बैठे हुए दूत का चित्त उनके तेज से विभ्रान्त हो गया। वह कुछ कहना चाहता था फिर भी कुछ नहीं कह सका, क्योंकि राजा अपने तेज के द्वारा अलंघनीय होते हैं।
२. न किञ्चिदूचानमवेक्ष्य दूत, जगाद राजा विदिताशयार्थः ।
मुखेन दृष्ट्या च विदन्ति सर्व , विचक्षणाः स्वान्तगतं हि भावम् ॥
विचक्षण व्यक्ति दूसरों के हृदयगत सभी भावों को उनकी आकृति और दृष्टि से जान जाते हैं। बाहुबली ने दूत के सभी अभिप्रायों. को जान लिया । दूत को मौन देखकर वे बोले- .
३. आसीत् तब स्वागतनन्ययोध्यागतस्य चैतावद खण्ड मार्गे।
तवागमात् तृप्तमिदं मनो मे , तृषातुरस्येव जलावलोकात् ॥ 'दूत ! तुम अयोध्या से आए हो । समचे मार्ग में तुम्हारा स्वागत हुआ होगा। जिस प्रकार जल को देख कर प्यासा व्यक्ति तृप्त हो जाता है, वैसे ही तुम्हारे आने से मेरा यह मन भी तृप्त हो गया है।
४.. नितान्ततृष्णातुरमस्मदीयं , बन्धुप्रवृत्त्या सुखपाद्य चित्तम् ।
दूरेस्तु धाराधरवारिधारा , सारङ्ग मानन्दति गजिरेव ॥ दूत ! मेरा मन अपने बंधु (भरत) का वृत्तान्त जानने के लिए नितान्त आतुर रहता
१. विघणितात्मा-विभ्रान्तचित्तः । २. बन्धुप्रवृत्त्या-भरतादिवृत्तान्तेन । ३. सारङ्गः-चातक (सारङ्गोनभोम्बुपः-अधि० ४।३६५)