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अष्टमः सर्गः
१. प्रथावरोधेन समं प्रयान्तं , नमस्यतीव क्षितिराजमारात् ।
सरस्तटोत्सपितरङ्गहस्तैः , सतां स्थिति केप्यवधीरयन्ति ?
राजा ने अपने अन्तःपुर के साथ उस सरोवर से प्रयाण किया। उस समय वह सरोवर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कि तट की ओर बढते हुए तरंग रूपी हाथों से वह महाराज भरत को दूर से ही नमस्कार कर रहा हो । क्या कोई सज्जन व्यक्तियों की स्थिति की अवमानना करता है ?
२. स्नानामुक्तालकबिन्दुपंक्तिव्याजेन मुक्ताभिरिवावकीर्णः । . पद्माकरस्तीरगताङ्गनाभी , रसावहानां न हि संभवेत् किम् ॥
तट पर आई हुई सुन्दरियों के, स्नान से भीगे हुए बिखरे केशों से पानी की बूंदें टपकटपक कर भूमि पर नीचे गिर रही थीं। जल की बूंदों के व्याज से ऐसा लग रहा था मानो कि उस सरोवर पर मोती बिखरे हुए हों। क्योंकि रस का वहन करने वालों के लिए क्या सम्भब नहीं होता ? सब कुछ सम्भव होता है।
३. सितच्छदानां चरतामनन्ते , जलस्थलाम्भोरुहिणीविबोधः ।
जलस्थपालिस्थितपद्मिनीभिर्लोलालकालिप्रसराभिरासीत् ॥
जल में और सेतु पर स्थित सुन्दरियों के बिखरे हुए केश रूपी भ्रमरों के प्रसार के कारण आकाश में उड़ने वाले हंसों को जल और स्थल में होने वाले कमलों का बोध हो रहा था।
४. धम्मिल्लमुक्तालकवल्लरीणां , नत्यक्रियाकल्पनसूत्रधारः ।
तं सावरोध तटसन्निविष्टं , मुहुः सिधेवे सरसीसमीरः ।।
राजा अपने अन्तःपुर के साथ तट पर बैठा था। सुन्दरियों के जूडों से मुक्त केशवल्लरियाँ पवन के झोंकों से हिल रही थीं। उनकी नृत्य-कला का सूत्रधार सरोवर का पवन भरत की बार-बार सेवा कर रहा था ।