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________________ पञ्चदशः सर्गः .. २८५ रेणु रूपी अंधकार से व्याप्त उस रणभूमी में पहिओं के चीत्कारों से रथ, घंटाओं के शब्दों से हाथी और हिनहिनाहट से घोड़े पहिचाने जाते थे । १३. पतङ्गा इव दीपान्तः, केचिद् वीरा रणाजिरे। उत्पतन्तः पतन्तश्च , नाप्यसून बहु मेनिरे ॥ कुछ सुभट उस रण-प्रांगण में दीपकों में गिरने वाले पतंगों की तरह ऊपर उछलते हुए और गिरते हुए अपने प्राणों को भी बहुत नहीं मानते थे । १४. उत्सर्पच्छोणितोद्दामपूरप्लावितभूमृति । मीना इवाजिवाहिन्यां', मज्जन्तिस्म मतङ्गजाः ॥ बहते हुए रक्त के उद्याम प्रवाह से भूधरों ( पर्वतों या राजाओं) को आप्लावित करने वाली युद्ध रूपी नदी में हाथी मछलियों की भांति मज्जन कर रहे थे। १५. केषां निस्त्रिशनि नमौलीनां नन्तुस्तराम् । - कबन्धा गाढनिर्बन्धा , वातोद्धता द्रमा इव ॥ कुछ सुभटों के शिर तलवार द्वारा कटे हुए थे । उनके धड़ गाढ आसक्ति के कारण वायु से प्रकंपित वृक्षों की भांति उस रणभूमी में माच रहे थे। १६. युद्धकल्लोलिनीनाथकल्लोलितभुजा भटाः । कोत्तिमुक्तालतावारान् , जगृहुर्वक्त्रशुक्तितः ॥ युद्ध रूपी समुद्र में कल्लोलित भुजा वाले सुभट (प्रतिपक्षियों के ) मुख रूपी सीपियों से कीति रूपी मोतियों के लता-समूह को पकड़ रहे थे। १७. दन्तिदन्तासिसंघट्टसंजातोल्कं व्यराजत । __निशि व्योमेव कुम्मोत्थमुक्ताताराञ्चितं मृधम् ॥ जैसे रात का आकाश उल्काओं और ताराओं से शोभित होता है, वैसे ही वह युद्ध हाथियों के कुंभस्थलों से प्राप्त मोतियों रूपी ताराओं से तथा हाथियों के दांतों के साथ तलवारों का संघट्टन होने के कारण उठने वाली उल्काओं से शोभित हो रहा था। १८. वीराणामस्ततीराणां , कुम्भिकुम्भेष्वभुस्तराम् । . कृपाणाः शैलशृङ्गषु , साभ्रविधुच्चया इव ॥ १. आजिवाहिन्याम्-युद्ध रूपी नदी में। २. मृधम्-युद्ध ( संस्फोट: कलहो मृधं-अभि० ३।४६०)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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