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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् तीर चलाने वाले वीर योद्धाओं के कृपाण हाथियों के कुंभस्थल पर वैसे ही शोभित हो रहे थे जैसे पर्वतों के शिखरों पर बादलयुक्त विद्युत् के समूह शोभित होते हैं। . १९. उड्डीयेभकपोलेभ्यो , लीनाः क्वापि शिलीमुखाः ।
एष्यच्छिलीमुखातङ्कादास्यसाम्यं हि दुःसहम् ॥ आने वाले बाणों के आतंक से भयभीत होकर भौंरे हाथियों के कपोलों से उड़कर कहीं चले गए । क्योंकि मुंह की समानता दुःसह होती है। (भौंरों के मुंह भी तीखे होते हैं और बाणों के अग्रभाग (मुख) भी तीखे होते हैं। इसलिए संस्कृत में दोनों का नाम है-शिलीमुख)। २०. केषांचिल्लूनमौलीनां , युद्धोत्साहाद् धनुर्भृताम् ।
कबन्धा अप्ययुध्यन्त , ह्यभिप्रायानुगं वपुः ॥ शिर कटे हुए कुछ धनुर्धरों के युद्धोत्साह के कारण उनके धड़ भी लड़ रहे थे । क्योंकि शरीर अभिप्राय के पीछे-पीछे चलता है। '
२१. गदाभिः स्यन्दनाः कश्चिच्चूरिताः शुष्कपत्रवत् ।
अपात्यन्त गजेन्द्राश्च , वनभिन्नाद्रिशृङ्गवत् ॥ कुछ सुभटों ने रथों को गदा द्वारा सूखे पत्ते की भांति चूर-चूर कर डाला । कुछ सुभटों ने बड़े-बड़े हाथियों को वज्र से आहत पर्वत-शिखर की भांति नीचे गिरा डाला। २२. वीराः केचिद् रणोत्थाष्णुभुजचण्डिमविताः ।
वैरिणं क्षणमाश्वास्य , योधयामासुरञ्जसा ॥
कुछ वीर रण में स्फूर्त भुजाओं की प्रचंडता से गर्वित होकर वैरियों को क्षण भर के लिए आश्वस्त कर फिर शीघ्र ही युद्ध करने लगे ।
२३. भटाः केचिद् बलौद्धत्यात् , क्रीडाकन्दुकहेतुजान् ।
शताङ्गाश्चतुरङ्गाश्च , सहेलमुदपाटयन् ॥
कुछ वीर सुभटों ने अपने बल की उद्धतता के कारण शतांग और चतुरंग रथों को खिलौने की भांति लीलापूर्वक उखाड़ फेंका।
१. पाठान्तरं-अलीभाः। २. पाठान्तरं-मुखातङ्कान्नास्यसाम्यं ।