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पञ्चदशः सर्गः
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२४. दन्तानाचकृषुः केचिद् , दन्तिभ्यः कन्दवद् भुवः ।
दोर्दण्डचण्डमाहात्म्यं , नयन्तः परभागताम् ॥ अपने भुजदंड के प्रचण्ड महत्व को उत्कर्ष प्राप्त कराते हुए कुछ वीर सुभटों ने हाथियों के दांतों को, भूमी से कंद की भांति, उखाड़ डाला।
२५. सैन्यैः केशेषु संगृह्य , शिरांसि गगनस्थले ।
भ्राम्यन्तेस्म च केषांचित्, खड्गलू नानि वैरिणाम् ॥ कुछ सुभट खड्ग से शत्रु-सुभटों के शिर काटकर, उन्हें चोटी से पकड़ आकाश में घुमा रहे थे।
२६. अहङ्कारः समं केषां , केतवः शौर्यसेतवः। .
... अच्छिद्यन्त तृणच्छेदं , किमच्छेद्यं हि दो ताम् ॥ कुछ वीरों ने अपने प्रतिपक्षियों के शौर्य की सेतुभूत पताकाओं को, उनके अहंकार के साथ तिनके की भांति तोड़ डाला । बाहुबलियों के लिए अछेद्य क्या होता है।
२७. 'सा कङ्कालमयी मुण्डमयी रुण्डमयी क्वचित् ।
प्रेतेशराजधानीव , भीषणाऽभाद् रणक्षितिः॥
वह रणभूमी कहीं कंकालमयी, कहीं मुंडमयी और कहीं रुण्ड (धड़) मयी हो रही थी। वह यमराज की राजधानी (संयमनी) की भांति भयंकर लग रही थी।
२८. जितानेकाहवा यूयं , किमद्यापि प्रमाद्यत ।
इत्युक्ताः स्वामिना स्वैरं , योयुध्यन्तेस्म दो तः॥ अपने-अपने स्वामी द्वारा यह स्पष्ट कहे जाने पर कि-'वीरो ! तुमने अनेक युद्ध लड़े हैं और जीते हैं, फिर आज प्रमाद क्यों कर रहे हो'–वीर सुभट अपनी स्वतन्त्र इच्छा से दुगुने वेग से लड़ने लगे।
कुन्ताग्रेण समादायाऽश्ववारः केनचिद् युधि ।
विद्धसादिशिरोवाजिमध्येनाधोमुखं पृतः॥ युद्ध में किसी सुभट ने अश्वारोही का शिर और अश्व का पेट बींधकर, अश्वारोही को भाले की नोंक से उठाकर उसे ओंधा लटका लिया।
३०. सपताकी सभूपालः, सतुरङ्गः ससारथिः।
अक्षेप्युत्क्षिप्य केनापि , दूरतो लोष्ठवद् रथः ॥