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कथावस्तु
महाराज भरत की सेना का प्रयाण सुनकर सुन्दरियों के हृदय धड़कने लगे, क्योंकि उन्हें आज अपने पतियों से पृथक होना पड़ रहा था। कोई कान्ता अपने पति के साथ जाने का हठ कर रही थी तो कोई पति को वहीं रुकने का आग्रह दिखा रही थी। विरह से दीन बने हुए दम्पतियों के विविध प्रलाप होने लगे।
एक दिशा की ओर प्रयाण करने वाली भरत की सेना अब सैंकड़ों मार्गों की ओर बढ़ चली। वह मार्गगत राजाओं को जीतती हुई चली जा रही थी। पैदल सैनिक सारे भूमंडल पर और आकाशगामी विद्याधर सारे प्राकाश में व्याप्त हो गए। भरत की सेना अयोध्या से बहुत दूर निकल गई। आगे चलने वाले घुड़सवारों से लोग पूछते तो वें. यही कहते कि सेना पीछे आ रही है और पीछे वालों को पूछते तो वे भी यही कहते कि सेना पीछे आ रही है । इस प्रकार उस सेना का अनुमान लगाना कठिन हो रहा था। सेना और आगे बढ़ी।
__ एक योजन भूमि पार कर लेने पर सुषेण सेनापति ने भरत से कहा'देव ! अब हमें कुछ विश्राम करना चाहिए क्योंकि सभी थकावट का अनुभव कर रहे हैं। राजा ने विश्राम का आदेश दिया और अपने गुप्तचरों को बहली प्रदेश में गुप्त रहस्य जानने के लिए भेजा। कोशल देश की सीमा का वह अंतिम छोर था। आगे बहली प्रदेश की सीमा प्रारम्भ हो जाती थी। सेना का पड़ाव गंगा नदी के तट पर डाला। वहां एक सुन्दर कानन था। उसमें एक चैत्य था।
महाराज भरत उस कानन को देखने चल पड़े।