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चतुर्दशः सर्गः . . १०. अम्भोजभम्भा'बककाहलानां' , रवैदिगन्तप्रसरवितेने।
उदात्तशब्दकमयं त्रिविश्वं , कि मथ्यतेऽम्भोनिधिरित्थमोहि ॥
कमल के आकार वाली भंभाओं और बक के आकार वाले काहलों की दिगन्त में प्रसरणशील ध्वनि ने त्रैलोकी को उदात्त ध्वनिमय बना डाला । इस ध्वनि के कारण यह वितर्क हो रहा था कि क्या समुद्र का मन्थन हो रहा है ?
११. ततः स्वयं भारतवासवोऽपि , प्रातस्तनं कृत्यविधि विधाय ।
स्नात्वा शुचीभूतवपुविवेश , क्लुप्ताङ्गरागो जिनराजगहम् ।।
इसके पश्चात् महाराज भरत ने भी प्रातःकालीन करणीय विधियों को सम्पन्न कर स्नान किया और स्वच्छ शरीर पर सुगंधित लेप कर ऋषभ देव के मन्दिर में गए ।
१२. हिरण्मयं रत्नमयं युगादेरानचं बिम्बं हरिचन्दनेन ।
स्वभावसाधर्म्यजुषा ततोऽसौ , त्रैलोक्यपूज्यत्वमिवादधेऽस्य ॥
महाराज भरत ने स्वभाव से समानधर्मा अर्थात् शांतिकारक गोशीर्षचन्दन से ऋषभदेव की स्वर्ण और रत्नमय प्रतिमा की अर्चा की। तीनों स्थानों (मस्तक, हृदय और चरण) पर की गई अर्चा भगवान् के त्रैलोक्य-पूज्यत्व की सूचना दे रही थी।
१३. आमोदवाहैः कसुमैः स्तवैश्च , तथाक्षतरक्षतकादिभिः सः।
विधा विधिज्ञो विधिवद् व्यधत्त , पूजां युगादेर्जगदीश्वरस्य ॥
महाराज भरत तीनों प्रकार की पूजा-विधियों के ज्ञाता थे। उन्होंने पहले सुगन्धित फूलों से, फिर स्तुतियों से और अन्त में अखण्डित अक्षतों से जगदीश्वर ऋषभ की विधिवत् पूजा सम्पन्न की।
१४. इत्यर्चयित्वा विधिवद् जिनेन्द्रं , जिनालयादेत्य बहिश्च चक्री।
जगज्जयं नाम बमार वर्म , तेजोंशुमालीव नभोन्तमाप्तम् ॥
इस प्रकार जिनेन्द्र देव की विधिवत् पूजा कर चक्रवर्ती भरत जिनालय से बाहर आये और उन्होंने 'जगज्जय' नाम वाले कवच को वैसे ही धारण किया जैसे सूर्य आकाश के छोर तक व्याप्त तेज को धारण करता है।
१. भम्भा-अवनद वाद्य । . २. काहल–तीन हाथ लम्बा, छिद्र युक्त तथा धतूरे के फूल की तरह मुंह वाला शुषिर वाद्य ।