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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् योद्धाओं का नामपूर्वक परिचय कराने लगा। उनमें कुछ शतयोधी, कुछ सहस्रयोधी, कुछ लक्षयोधी और कुछ कोटियोधी थे।
३६. अथ स्वयं शृण्वति भारतेशे , बलाधिराजो मगधाधिराजम् ।
बृहस्पति नाम विशेषविज्ञं , पप्रच्छ शत्रुध्वजनामवाहान् ।
महाराज भरत के सुनते हुए सेनापति सुषेण ने स्तुतिपाठकों के अग्रणी, विशेषविज्ञ बृहस्पति से शत्रुओं के ध्वजचिह्न, नाम और घोड़ों के विषय में पूछा। ...
३७. तमाह वैतालिक सार्वभौमो , गिरा विशेषाद् रिपुकीतिमत्या।
यत्प्राप्तरूपा मुखरीभवन्ति , पृष्टाः पुनर्मोनजुषोऽन्यथैव ॥
तब स्तुतिपाठकों का अग्रणी, शत्रुओं की कीति करने वाली विशेष वाणी में सुषेण सेनापति के प्रश्नों का उत्तर देने लगा। विद्वान् व्यक्ति पूछे जाने पर मुखर हो जाते हैं, अन्यथा वे मौन ही रहते हैं।
३८. अयं पुरस्तक्षशिलाक्षितीशः , सिंहध्वजः शात्रवदन्तिसिंहः ।
गजाधिरूढः समराय धर्यनिवासभूर्धावति सूनयुक्तः ॥ .
'ये आगे हाथी पर आरूढ़ तक्षशिला के स्वामी बाहुबली हैं। ये सिंह की ध्वजा वाले, शत्रु रूपी हाथी के लिए सिंह के समान और धर्य की निवास भूमी हैं। ये अपने पुत्रों से परिवृत होकर युद्ध के लिए आये हैं।' .
३९. दोर्दण्डदम्भोलिरमुष्य राज्ञः , पक्षच्छिदे भूमिभृतां सहत्वम् । '
बित्ति यच्चित्रमिदं तदीयं , तेषां पुनः पक्षवृधे नतानाम् ॥
'इन महाराज बाहुबली का भुजदंड रूपी वज्र राजाओं (पक्ष में पर्वतों) के पक्षों का छेदन करने में समर्थ है । किन्तु इनके विषय में यह अद्भुत बात है कि जो इनके समक्ष नत हो जाते हैं उनके पक्षों की वृद्धि होती है।'
४०. अस्यात्मभूश्चन्द्रयशाः शशाङ्ककेतुः शशाङ्काभरथाधिरूढः ।
यस्मिन् प्ररुष्टे कटका स्थिरत्वचिन्ता वितेने द्विषदङ्गनाभिः ॥ १. मगधः-स्तुतिपाठक (मागधो मगधः-अभि० ३।४५६) २. वैतालिक:-मंगलपाठक. (वैतालिका बोधकरा:-अभि० ३।४५८) ३. शात्रवः-शत्रु (शात्रवः प्रत्यवस्थाता-अभि० ३।३६२) ४. कटक:-कंकण (कटको वलयं पारिहार्यावापौ च कङ्कणम्-अभि० ३।३२७)