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कथावस्तु
युद्ध की भीषणता को देखकर देवगण भूमी पर आ गए। वे सर्वप्रथम भरत के समक्ष आकर बोले-'राजन् ! आप तो मर्यादा के मूल हैं। आप ऋषभ के पुत्रों में ज्येष्ठ हैं । आप इस युद्ध में क्यों फंसे हैं।.राजे दो कारणों से युद्ध करते हैं-भूमी के लिए या अहं की तुष्टि के लिए। आप अहं के कारण ऐसा कर रहे हैं। किन्तु भाई के साथ प्रलयंकारी युद्ध करना क्या आपके लिए उचित है ? आप हमारी बात मानकर भाई के साथ संधि करलें।' भरत ने कहा-'मेरा यह भाई बाहुबलों झुकना नहीं चाहता। उसके झुके बिना यह चक्र आयुधशाला में प्रविष्ट नहीं हो रहा है। यह मेरे लिए लज्जा की बात है। उसे पराजित किए बिना मेरा कैसा चक्रवत्तित्व ।' देवताओं ने कहा-'चक्रवत्तिन् ! आप ठीक कहते हैं। किन्तु आप दोनों की अहं तुष्टि के लिए यह नर-संहार तो उचित नहीं है । आप अपनी सेना का निवारण कर परस्पर युद्ध करें। जो जिसको जीत लेगा भूमी उसी की हो जाएगी। आप दृष्टियुद्ध, मुष्टियुद्ध, शब्दयुद्ध और यष्टियुद्ध-इन चार प्रकार के युद्धों से लड़ें। इनमें आप दोनों के पराक्रम का पता लग जाएगा।' भरत ने देवताओं के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
तत्पश्चात् देवता बाहबली के समक्ष उपस्थित हुए। उन्होंने अपनी बात कही । बाहुबली ने कहा--'यदि नर-संहार को रोकना है और हमारे पराक्रम की कसौटी करनी है तो अच्छा यह है कि युद्ध-भूमी में भरत भी अकेला आए और मैं भी अकेला ही वहां जाऊं। हम दोनों के पराक्रम का पता लग जाएगा।' देवताओं ने इसे स्वीकार कर लिया। दोनों पक्षों के सैनिकों ने जब यह संवाद सुना तो वे अवाक् रह गए। अपनी वीरता के प्रदर्शन की बात उनके मन में ही रह गई। दोनों ओर के सैनिक हट गए। देवताओं ने रण-भूमी को फूलों से उपचित कर डाला। '