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षोडशः सर्गः
'राजे अपने परिजन और धन के कारण ही युद्ध के लिए प्रोत्साहित होते हैं, भुज-बल से नहीं । सेवकों का कार्य है कि वे युद्ध में राजा की रक्षा करें। स्वामी के मारे जाने पर सेना दीन हो जाती है।'
७०.
देवतेरितमुरीकृतमेतत् , साधु नैव भरतक्षितिनेतुः । स्वान विषण्णमनसस्त्विति वीरान् , भूपतिवृषभसूनुरुवाच ॥
'देवताओं द्वारा प्रेरित होकर यह सब स्वीकार किया गया है, किन्तु यह भरत के पक्ष में अच्छा नहीं है—'इस प्रकार विषण्णमन वाले अपने सैनिकों को देखकर महाराज भरत ने कहा
७१. खातिका खनत साम्प्रतमेकां , सैनिकाः ! पृथुतरातिगभीराम् ।
प्रत्ययो मम बलस्य ततो दाग , लप्स्यते सुकृतवद्भिरिवार्थः॥
'सैनिको! अभी तुम एक विशाल और गहरी खाई खोदो। जैसे पुण्यशाली व्यक्ति धन प्राप्त करता है, वैसे ही तुम मेरे सामर्थ्य का शीघ्र ही विश्वास प्राप्त कर लोगे।'
७२. शासमं भरतनेतुरितीदंः, सैनिकः सफलतामथ निन्ये ।
. वारिवैरिव ललज्जलधारैर्नोप'काननमिवाम्बुदकाले ॥
भारतेश्वर की यह आज्ञा पाकर सैनिकों ने एक विशाल खाई खोदकर ऐसे तैयार कर ली, जैसे वर्षाकाल में जलधारा को बरसाने वाले मेघ कदम्ब के कानन को तैयार कर
लेते हैं।
७३. तत्र भारतपतिः स्वयमस्थाच्छं खलं निजभुजे परिरभ्य।
ऊचिवानिति कृषन्तु यथेष्टं , पद्मनालमिव चैनमशेषाः॥ तब भरत अपनी भुजाओं पर सांकल लपेट कर स्वयं वहां बैठ गए और अपने सैनिकों से बोले-'तुम सब मिलकर पद्मनाल की भांति इस सांकल को यथेष्ट रूप से
खींचो।'
७४. चालितो न सकलैरपि बाहुः , कर्षणोत्कटहठः क्षितिनेतुः।
शैलराजशिखरं न कदाचिद् , वात्यया हि निपतन्ति फलानि ॥ सांकल को खींचने के लिए अत्यन्त हठी सभी सैनिकों ने सांकल को जोर से खींचा किन्तु चक्रवर्ती भरत की भुजा टस से मस नहीं हुई। तूफान से मंदर पर्वत का शिखर कभी नहीं गिरता केवल वृक्षों के फल ही नीचे गिरते हैं ।
१. नीपः---कदम्ब (नीपः कदम्ब:-अभि९ ५।२०४)