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________________ २१४ . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् गुरु की तरह वन्दनीय है, वह अनिलवेग अत्यन्त दुःसह है-रणभूमि में उसका सामना करना कठिन है।' ४६. बहलीनाथपाथोधिः , सर्वथैव दुरुत्तरः । . भीष्मश्चौर्वानलेनेवानिलवेगेन दोष्मता ॥ 'राजन् ! महान भुज-पराक्रमी और वाडवाग्नि की भांति अनिलवेग के रहते हए बाहुबली रूपी रौद्र समुद्र को तर पाना सर्वथा दुष्कर है।' . ४७. पुनर्भारतभूपाल ! , विद्याधरधराधवः। __रत्नारिस्तमुपागच्छद् , दर्श' विधुरिवारुणम् ।। 'हे भारत के भूपाल ! एक बात और भी है। विद्याधरों का स्वामी.रत्नारि उस बाहबली के पास वैसे ही आ मिला है जैसे अमावस्या के दिन चन्द्रमा सूर्य से जा मिलता है।' . ४८. अमी विद्याभूतो वीरा , बहुशो बहलीशितुः । ___ अभ्यणं तूर्णमाजग्मुः , प्रवाहा इव वारिधिम् ॥ 'राजन् ! ये अनेक विद्याधर वीर बाहुबली के पास शीघ्र ही वैसे ही आ गए हैं जैसे पानी के प्रवाह समुद्र के पास आ जाते हैं।' , ४६. किराताः' पातितारातिदुर्मदाचलदोर्द्वमाः। उत्साहा इव देहाढ्यास्तमुपागत्य चाऽनमन् ॥ 'अपने शत्रुओं के दुरहंकार रूपी पर्वत की भुजा रूपी वृक्षावली को नष्ट करने वाले किरात ऐसे हैं, मानो मूर्तिमान् उत्साह हों । वे भी बाहुबली के पास जाकर नत हो गए हैं।' ५०. सन्नद्धबद्धसन्नाहाः', कण्ठप्रापितकार्मुकाः । __मूर्ता इव धनुर्वेदास्तस्येयुर्लक्षशः सुताः॥ 'बाहुबली के लाखों पुत्र सज्जित होकर, कवच पहनकर तथा गले में धनुष्य को धारण १. दर्श:-अमावस्या (दर्शः सूर्येन्दुसङ्गमः-अभि० २।६४) २. किरातः-भील (माला भिल्लाः किराताश्च-अभि० ३।५६८) . ३. सन्नाहः-कवच (सन्नाहो वर्म कङ्कट:-अभि० ३।४३०). ४. कामुकम्-धनुष्य (कोदण्डं धन्व कामुकम्-अभि० ३।४३६) .
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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