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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् गुरु की तरह वन्दनीय है, वह अनिलवेग अत्यन्त दुःसह है-रणभूमि में उसका सामना करना कठिन है।'
४६. बहलीनाथपाथोधिः , सर्वथैव दुरुत्तरः ।
. भीष्मश्चौर्वानलेनेवानिलवेगेन दोष्मता ॥
'राजन् ! महान भुज-पराक्रमी और वाडवाग्नि की भांति अनिलवेग के रहते हए बाहुबली रूपी रौद्र समुद्र को तर पाना सर्वथा दुष्कर है।' .
४७. पुनर्भारतभूपाल ! , विद्याधरधराधवः।
__रत्नारिस्तमुपागच्छद् , दर्श' विधुरिवारुणम् ।।
'हे भारत के भूपाल ! एक बात और भी है। विद्याधरों का स्वामी.रत्नारि उस बाहबली के पास वैसे ही आ मिला है जैसे अमावस्या के दिन चन्द्रमा सूर्य से जा मिलता है।' .
४८. अमी विद्याभूतो वीरा , बहुशो बहलीशितुः ।
___ अभ्यणं तूर्णमाजग्मुः , प्रवाहा इव वारिधिम् ॥
'राजन् ! ये अनेक विद्याधर वीर बाहुबली के पास शीघ्र ही वैसे ही आ गए हैं जैसे पानी के प्रवाह समुद्र के पास आ जाते हैं।'
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४६. किराताः' पातितारातिदुर्मदाचलदोर्द्वमाः।
उत्साहा इव देहाढ्यास्तमुपागत्य चाऽनमन् ॥
'अपने शत्रुओं के दुरहंकार रूपी पर्वत की भुजा रूपी वृक्षावली को नष्ट करने वाले किरात ऐसे हैं, मानो मूर्तिमान् उत्साह हों । वे भी बाहुबली के पास जाकर नत हो गए हैं।'
५०. सन्नद्धबद्धसन्नाहाः', कण्ठप्रापितकार्मुकाः ।
__मूर्ता इव धनुर्वेदास्तस्येयुर्लक्षशः सुताः॥
'बाहुबली के लाखों पुत्र सज्जित होकर, कवच पहनकर तथा गले में धनुष्य को धारण
१. दर्श:-अमावस्या (दर्शः सूर्येन्दुसङ्गमः-अभि० २।६४) २. किरातः-भील (माला भिल्लाः किराताश्च-अभि० ३।५६८) . ३. सन्नाहः-कवच (सन्नाहो वर्म कङ्कट:-अभि० ३।४३०). ४. कामुकम्-धनुष्य (कोदण्डं धन्व कामुकम्-अभि० ३।४३६)
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