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________________ एकादशः सर्गः २१५ कर बाहुबली के पास आ गए हैं। वे ऐसे लगते हैं मानो धनुर्वेद ही मूर्तिमान् हो गया हो ।' ५१. 'राजन् ! सभा में बैठे हुए तथा यम की भांति दुर्धर बाहुबली को उस समय उन प्रसन्न सुभटों ने उसी प्रकार घेर लिया जैसे किरण- जाल सूर्य को घेरे रहता है ।' ५२. ५३. समासीनमदीनास्ते, कोनाशमिव दुर्धरम् । परिवत्रुस्तदेवेनं तरणि किरणा इव ॥ 2 'राजन् ! बाहुबली के मंत्री का नाम 'सुमंत्र' है । वह बृहस्पति की भांति मंत्रणा देने में निपुण है । उसने बाहुबली के समक्ष निष्कपट भाव से कहा— ५४. अथ मन्त्री सुमन्त्राख्यः', सुरमन्त्रीव मन्त्रवित् । निर्व्याजं व्याजहारेति, पुरस्तात् तस्य भूपतेः ॥ ५५. देव । त्वं मद्वचः स्वरं कुरुतात् कर्णगोचरम् । चिन्त्याहितविदोऽमात्याः कार्यारम्भे हि राजभिः ॥ 'देव ! आप मेरे वचन को ध्यानपूर्वक सुनें। नीतिकारों ने भी कहा है कि कार्य के प्रारम्भ में राजाओं को हितचिन्तक अमात्यों से मन्त्रणा करनी चाहिए ।' , यथा पयोधरौन्नत्याद्, बालाया यौवनोद्गमः । तथा स्वामिबलो कान्, मन्त्रिभिर्ज्ञायते जयः ॥ 'जैसे कुमारी के स्तनों के उभार से उसके यौवन के आगमन को जान लिया जाता है, वैसे ही मंत्री भी अपने स्वामी के पराक्रम के अतिरेक से होने वाली विजय को जान लेते हैं ।" प्रबलेन सह स्वामिन्!, विधेया न विरोधिता । पश्य पाथोजिनीनेत्रा', संक्षिप्यन्ते तमांसि हि ॥ 'स्वामिन् ! प्रबल व्यक्ति के साथ विरोध नहीं रखना चाहिए। आप देखें, सूर्य अंधकार को नष्ट कर ही देता है । ' १. पाठान्तरम् - सुमन्त्रीशः । २. पाथोजिनीनेत्रा – सूर्येण ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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