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________________ कथावस्तु दूत की बातें सुन महाराज भरत का मन उद्विग्न हो गया। बचपन के संस्मरण उनकी आंखों के आगे नाचने लगे । उनको बाहुबली का भुजपराक्रम याद आ गया । वे विचारों में मग्न हो गए । अब भाई के साथ युद्ध करने के अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं रहा। युद्ध की बात से वे बौखला उठे। एक ओर अपने चक्रवर्तित्व का अहं तो दूसरी ओर अपने ही बंधु की उद्दण्डता । एक ओर न्याय-नीति तो दूसरी ओर भ्रातृत्व । वे दोनों झूलों के बीच झलने लगे। कभी मन कहता-भाई का घात कर चक्रवर्ती बनने में लाभ ही क्या है ? कभी मन कहता-चाहे कोई हो जो उद्दण्डता करता है, अविनय करता है, अहं रखता है तो उसे दंड मिलना ही चाहिए। इतने में ही सेनापति सुषेण ने आकर महाराज भरत को कर्तव्य के प्रति सजग किया और विविध उक्तियों से यह बात प्रसाधित की कि युद्ध ही राजाओं की श्रेष्ठ मर्यादा है। युद्ध ही संपदाओं का स्थान है। सेनापति की बात सुनकर भरत का मन युद्ध के लिए उत्साहित हो गया। ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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