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चतुर्दशः सर्गः ही महाराज भरत उन्नत हाथी पर सवार हुए । उस समय कुरु देश के राजा ने उन्हें हाथ का सहारा दिया।
२०. ततः सुषेणोऽपि पताकिनीशः , स्वयं शताङ्ग पवनञ्जयाख्यम् ।
आरुह्य नेतुः पुरतो बभूव , बलाहकस्येव समीरणो द्राक् ॥
उसके पश्चात् सुषेण सेनापति भी 'पवनञ्जय' नाम वाले रथ पर आरूढ़ होकर स्वयं अपने स्वामी भरत के आगे-आगे शीघ्रता से चलने लगा, जैसे मेघ के आगे-आगे पवन चलता है।
२१. कुन्तं धरन् वह्निमुखं च खड्गं , कालाननं नाम सुदुःसहाभम् ।
सेनाधिपोऽसौ चतुरङ्गसेनासमन्वितोऽभूत् पुरतो नृपस्य ॥
चतुर्विध सेना से युक्त सेनापति सुषेण 'वह्निमुख' नाम वाले भाले और अत्यन्त दुःसह तेज वाले 'कालानन' खड्ग को धारण कर महाराज भरत के आगे हो गया।
२२. ज्येष्ठः सुतः सूर्ययशा यशस्वी , ध्वान्तारिहासाख्यकृपाणपाणिः ।
सुपर्वसंमोहतनुः स्वकीयं , मिधाय तातस्य पुरः ससार ॥
भरत के यशस्वी ज्येष्ठ पुत्र 'सूर्ययशा' ने 'ध्वान्तारिहास' नाम वाला कृपाण अपने हाथ में लिया। उसका सुन्दर शरीर देवताओं को भी आश्चर्यचकित करने वाला था। वह भी अपने पिता भरत के आगे चलने लगा।
२३. एवं तनूजन्मसपादकोट्या , वृतोऽभ्यगात् सङ्गरकेलिभूमिम् ।
द्वात्रिंशता भूमिभुजां सहस्रः, समन्वितः शक्र इवामरैश्च ॥
इस प्रकार महाराज भरत सवा कोटि पुत्रों से परिवृत होकर युद्ध-स्थल में आए । जैसे • इन्द्र देवताओं से परिवृत होता है वैसे ही वे बत्तीस हजार राजाओं से परिवत थे।
२४. नि:स्वान'लक्षेषुदशस्वपोह , तथाजनकाष्टादशलक्षकेषु ।
लक्षाष्टयुग्मेषु च संपरायस्मरध्वजानां निनदत्सु कामम् ॥ २५. प्रवीरतातान्वयनामकोतिविराविषु स्फूतिमतां वरेषु ।
स्तुतिव्रतानां निवहेषु पूर्व , पृष्ठप्रसारेषु महारवेषु ॥ १. निःस्वानः-युद्ध-वाद्य। २. आनकः-दुन्दुभि (भेरी दुन्दुभिरानक:-अभि० २।२०७) ३. स्मरध्वजः-नगाडा।