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________________ चतुर्दशः सर्गः १. अथाग्रजो बाहुबलेर्बलं स्वमचीकरत्सज्जमनन्यसत्त्वः । प्रातर्युधे वेत्रिगिरा प्रबुद्धो , गुरुजिनोक्त्येव शिवाय भव्यम् ॥ 'प्रहरियों की वाणी से सारी स्थिति जानकर बाहुबली के अग्रज, असाधारण पराक्रमी चक्रवर्ती भरत ने प्रातःकाल अपनी सेना को 'युद्ध के लिए सज्जित किया, जैसे गुरु जिनवाणी के अनुसार भव्य प्राणियों को मोक्ष के लिए सज्जित करते हैं। २. ततः प्रवीरा भरतेश्वरस्य., दधुर्महोत्साहभरं हृदन्तः । . पतिप्रणुन्ना इव ताम्रचूडा , अन्योन्यपूर्वाभिगमप्रबन्धाः॥ उसके पश्चात् • महाराज भरत के सुभटों का हृदय अत्यन्त उत्साह से भर गया। वे स्वामी द्वारा प्रेरित कुक्कुटों की भांति, एक दूसरे से आगे रणस्थल में जाने के लिए तैयार हुए। ३. केचिद् वपुःषु द्विगुणीभवत्सु , सन्नाहमास्प्राक्षुरुदनशौर्यात् । पयोधरातहितसन्मरीचिग्रहा इवानीकनभःप्रमेयाः ॥ कुछ सभटों का शरीर प्रबल पराक्रम से द्विगुणित होकर कवच तक फैल गया। उस समय वे सेना रूपी आकाश में बादलों से ढंके हुए दीप्तिमान् ग्रहों की भांति लग रहे थे। ४. हेषा'रवोन्नादितदिविभागान् , केचित्तुरङ्गान् समनीनहन् द्राक् । गजांश्च केचित् समयूयुजंश्च , केचिच्छताङ्गास्तुरगैर्वृषेश्च ॥ कुछ सुभटों ने घोड़ों को सज्जित किया। वे अपनी हिनहिनाहट से दिगन्तों को मुखरित १. हेषा-हिनहिनाहट (हेषा ह्रषा तुरङ्गाणां—अभि० ६।४१)
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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