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________________ दशमः सर्गः १८६ वीर सुभट उस विहार के चारों ओर अपने तबुओं को तानकर विश्राम करने लगे। १०. विलासिनीविभ्रमचारुलीला , विलोक्य वीचीः सुरशैवलिन्याः। केऽपि स्मरन्तस्तुरगाधिरूढा , निषेदुरालेख्यकृता इव द्राक् ॥ कुछ घुड़सवार सुभट गंगा नदी की तरंगों को देखकर अपनी कान्ता के कटाक्ष के मनोज्ञ विलासों को याद करते हुए शीघ्र ही चित्रवत् स्थित हो गए। ११. कालागुरु'स्कन्धनिबद्धनागकटेषु' पेतुर्मधुपा विहाय । . पुष्पद्रुमान् कोऽपि विशिष्टवस्तुप्राप्तौ प्रमाद्यन्नु ससंज्ञचित्तः ॥ पुष्पित वृक्षों को छोड़कर भ्रमर काले अगर के वृक्षों के तने से बँधे हुए हाथियों के कपोलों पर गिरने लगे । ऐसा कौन सचेतन व्यक्ति होगा जो विशिष्ट वस्तु प्राप्त होने पर प्रमाद करे ? १२. दूर्वाङ्कुरग्रासनिबद्धकामा , वाहा विचेरुः सरितस्तटेषु । स्वस्वार्थचिन्ताविधिमाततान , स सैन्यलोकोऽपि तदा समग्रम् ॥ दूब के अकुरों को खाने में तल्लीन घोड़े नदी के तट पर घूमने लगे। उस समय सैनिक अपने समस्त कार्यों के प्रति दत्तचित्त हो गए। १३. अथ क्षितीशोऽवरुरोह नागाद् , विलोक्य दूराद् भगवन्निवासम् । - अमीदशानामुचितक्रियासु , नैपुण्यमाशंसति कोपि किञ्चित् ? मन्दिर को देखकर दूर से ही महाराज भरत हाथी से नीचे उतर गए। भरत जैसे बुद्धिमान व्यक्तियों को योग्य कार्य के प्रति निपुणता रखने के लिए क्या कोई भी व्यक्ति कुछ भी. निवेदन करता है ? नहीं, वे स्वयं उसका निर्वाह करते हैं। १४. ततः समग्रा अपि भूमिपाला , यानावरूढा विधिमस्य चक्रुः । अधीश्वराचीर्णमलङ्घनीयं , सेवापरैः कृत्यमिह ह्यशेषम् ॥ यह देखकर वाहनों पर चढ़े हुए सभी राजाओं ने भरत की विधि का अनुसरण किया—सभी अपने-अपने वाहनों से नीचे उतर गए। क्योंकि सेवापरायण व्यक्ति अपने स्वामी के किसी भी आचरण का कभी उल्लंघन नहीं करते । १. कालागुरु:-काले अगर का वृक्ष । २. कट:-हाथी का गण्डस्थल (गण्डस्तु करट: कट:-अभि० ४।२६१) ...
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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