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________________ षोडशः सर्गः ३१६ ५८. कोपवन्हिरतुलो मम चक्रेऽनेन दूतवचनेन्धनदानात् । सोभिषेणन'घृतकनिषेकाद् , दीपितः किमिह भावि न वेनि ॥ 'भरत ने दूत का वचन रूपी इन्धन डाल कर मेरी क्रोधाग्नि को भड़काया है। उसने एक मात्र आक्रमण रूपी घी के सिंचन से उस अग्नि को प्रज्वलित किया है। अब क्या होगा, मैं नहीं जानता।' ५६. सङ्गरोयमजनिष्ट महान् नौ , द्वादशद्विगुणितायनमात्रः । चेन्निषेधमधुनास्य विदध्यां , तहि मेऽल्पबल इत्यपवादः॥ 'हम दोनों के बीच यह महान् युद्ध प्रारम्भ हो चुका है। इसको बारह वर्ष हो गए हैं। यदि अब मैं इसे बीच में ही रोक दूं, तो 'मैं अल्प शक्तिशाली हूँ'-इस प्रकार मेरा अपवाद होगा।' ६०. मागतास्त्रिविवतो यदि यूयं , मां त्रिविष्टपंसदो ! न मया तत् । पुग्यवत्सुलभदर्शनवाक्याः , कुत्रचित् कलिवशादवमन्याः॥ 'देवगण ! आपकी वाणी और दर्शन पुण्यशालियों को ही सुलभ होते हैं। यदि आप स्वर्ग से मेरे पास आए हैं तो विग्रहवश मेरे द्वारा आपका कहीं भी अपमान न हो जाए, (इसलिए मैं एक प्रस्ताव करता हूँ-)' . ६१. एक एव समुपैतु रथाङ्गी , तादृशोहमपि संयत एता। तत्र नावधिक विक्रमवान् यः, स्वीकरिष्यति च तं विजयश्रीः । 'युद्ध-भूमी में चक्रवर्ती भरत अकेले आएँ और वैसे ही मैं भी वहां अकेला जाऊं। हम दोनों में जो भी अधिक पराक्रमी होगा, विजयश्री उसी का वरण करेगी।' ६२. एवमेव जनवर्गविमर्दो , नो भविष्यतितरां विबुधा ! हे !। दोर्बलोभ्यधिकताप्रतिपत्ति विनी च किल सर्वसमक्षम् ॥ 'हे देवगण ! ऐसा करने से ही जनसंहार नहीं हो पाएगा और वहीं पर सबके समक्ष हमारी भुजाओं के पराक्रम की अधिकता का विश्वास हो जायेगा।' ६३. व्याहृता अपि सुरा इति हृष्टास्तेन युद्धविधिदक्षभुजेन । कौतुकाय मगनं त्वधितस्थुः, कौतुकी न हि विलोकयिता कः ? १. अभिषेणनं–सेना के साथ शत्र पर चढ़ाई करना(अभिषेणनं तु स्यात् सेनयाऽभिगमो रिपो अभि० ३।४५४) २. नो+अधिक ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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