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रथ हो जाता है । वह स्वयं काव्य न होकर उक्त श्लोक का स्पष्टीकरण मात्र है । गुणात्मक पक्ष
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काव्य-शास्त्रियों ने काव्य के अनेक गुणों की संकल्पना की है । उसमें मुख्य गुण तीन हैं— माधुर्य, प्रसाद और ओज । आचार्य भामह ने केवल ये ही तीन गुण प्रतिपादित किए हैं। माधुर्य और प्रसाद गुणवाली रचना में प्रायः समासान्त पदों का प्रयोग नहीं किया जाता । ओज गुणवाली रचना में समास - बहुल पद प्रयुक्त किए जाते हैं । प्रस्तुत काव्य में प्रसाद और माधुर्य — दोनों गुणों की प्रधानता है । कहीं कहीं ओज गुण भी परिलक्षित होता है । निम्न निर्दिष्ट श्लोकों में माधुर्य टपकता है
अयि बाहुबले ! कलहाय बलं भवतोऽभवदायतिचारु किमु ? प्रजिघांसुरसि त्वमपि स्वगुरुं, यदि तद्गुरुशासनकृत् क इह ॥ कलहं तमवेहि हलाहलकं यमिता यमिनोप्ययमा नियमात् । भवती जगती जगतोशसुतं नयते नरकं तवलं कल हैः ॥
अयि ! साधय साधय साधुपदं, भज शांतरसं तरसा सरसम् । ऋषभध्वजवंशनभस्तरणे!, तरणाय मनः किल धावतु ते ॥
( १७७७४)
भरतमुनि और दंडी आदि ने काव्य के दस गुण माने हैं, उनमें पहला गुण श्लेष है । प्रस्तुत काव्य का पांचवां सर्ग श्लेष गुण प्रधान है ।
वृत्त्यात्मकता
या शैली की दृष्टि से प्रस्तुत रचना वैदर्भी और पाञ्चाली शैली की है । कहीं कहीं गौड़ी शैली का भी प्रयोग हुआ है' ।
रसात्मकता
प्रायः यह कहा जाता है कि जैन काव्य शान्तरस प्रधान होते हैं, किन्तु यह यथार्थ नहीं है । जैन कवियों ने काव्य की रसात्मकता को प्रधानता दी है और उन्होंने कवित्व की दृष्टि से यथासंभव उसका निर्वाह किया है । शान्तरस उनकी साधना के
१. काव्यालंकार २1१-२।
२. (क) साहित्य दर्पण 81२, ३ :
(१७७६६)
( १७७७० )
माधुर्यव्यञ्जकैवर्ण, रचना ललितात्मका ।
अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरिष्यते ॥
(ख) काव्यालंकारसूत्रवृत्ति, १।२।१३ : माधुर्यसुकुमारोपपन्ना पांचाली ।
३. साहित्य दर्पण, ६४: समासबहुला गौडी ।