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________________ अनुकूल हो सकता है किन्तु साधना और कवित्व का अनुबंध नहीं है । प्रस्तुत काव्य में कवि ने शान्तरस की तुलना में शृंगार रस का अधिक और वीर रस का उससे भी अधिक अवतरण किया है। अलंकार अलंकार के विषय में काव्यशास्त्री एकमत नहीं हैं। कुछ आचार्य अलंकार को महाकाव्य का अनिवार्य तत्त्व मानते हैं और कुछ इसे अनिवार्य तत्व-नहीं मानते । प्रस्तुत रचना में कवि ने शब्दालंकार और अर्थालंकार-दोनों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है । उपमा और उत्प्रेक्षा आदि की अपेक्षा 'अर्थान्तरन्यास' अधिक मात्रा में है। उनके कारण प्रस्तुत काव्य नीतिकाव्य जैसा प्रतीत होता है । जैसे ० क्रमं न लुपंति हि.सत्तमाः क्वचित् (१।१४) . . ० सकण्टका एव हि दुर्गमा द्रुमाः (१।१६) ० कोपः प्रणामान्त इहोत्तमानामनुत्तमाना. जननावधिहि (२०६०) . ० ह्ममृतं तिष्ठति नागभीरके (४।१६) . इस प्रकार के नीति वाक्यों का संकलन परिशिष्ट संख्यांक २ में है। कवि ने कहीं कहीं बहुत थोड़े में गम्भीर सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। शरीर और मन के सम्बन्ध के बारे में अनेक धारणाए रही हैं। कुछ विद्वान् दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध को स्वीकर करते हैं तो कुछ उस स्वीकृति को विशेष महत्व नहीं देते । वर्तमान के मनोवैज्ञानिक उन दोनों में परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध समझते हैं। कवि ने शरीर को मन के अधीन मानकर शरीर और मन के सम्बन्ध की प्रतिपत्ति की है । रणभूमि में बाणों की वर्षा हो रही है । योद्धाओं का युद्धोत्साह चरम उत्कर्ष पर है । वे परस्पर एक दूसरे पर प्रहार कर रहे हैं । कुछ योद्धाओं का सिर कट गया है, फिर भी उनका युद्धोत्साह शान्त नहीं हुआ है । उनके धड़ लड रहे हैं । इसका कारण कवि ने यह बताया है कि शरीर अभिप्राय के पीछे-पीछे चलता है केषांचिल्लूनमौलीनां, युद्धोत्साहाद् धनुभृताम् । कबन्धा अप्ययुध्यन्त, ह्यभिप्रायानुगं वपुः ॥ (१५।२०) कथावस्तु प्रस्तुत काव्य की कथावस्तु बहुत छोटी है। यदि इसका कथा-भाग बड़ा होता तो यह और अधिक सरस हो जाता। चक्रवर्ती भरत देश-विजय के बाद राजधानी में प्रवेश करता है और उसका चक्र आयुधशाला में प्रवेश नहीं करता ।
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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