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५४. भवानमुं नागमनन्तविक्रमं युधे समारोहतु दानशालिनम् । वृषेव' हाराञ्चितकण्ठकन्दलः, पुनर्दृ शामुत्सवमातनोतु ॥
"राजन् ! आप युद्ध के लिए इस अनन्त विक्रमशाली तथा भरते हुए मदवाले हाथी पर इन्द्र की भांति आरूढ़ हों और हार से सुशोभित कंठ वाले आप हमारे नयनों में उत्सव भरें ।'
५५.
भरत बाहुबलि महाकाव्यम्
५६.
समीरितो मागधवाग्भिरित्यसौ, जहौ विधिज्ञः शयनीयमञ्जसा
क्वचित् प्रमाद्यन्ति न हीदृशाः क्षितौ मृगारयो जाग्रति कि मृगारवः ?
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मंगल- पाठकों के वचनों से इस प्रकार प्रेरित होकर विधिज्ञ राजा बाहुबली तत्काल अपनी शय्या से उठे । संसार में ऐसे व्यक्ति कहीं प्रमाद नहीं करते । क्या सिंह हिरणों के शब्द से जागृत होते हैं ? कभी नहीं ।
५८.
दिवामुखत्याज्यविधि विधाय स, सिताब्जशुभ्र परिधाय चांशुके । युगादिदेवस्य जगाम मन्दिरं, शशीव बिभ्रच्छरदभ्रविभ्रमम् ॥
प्राभातिक विधि ( शौच आदि नित्यकर्म) को सम्पन्न कर महाराज बाहुबली ने श्वेत . कमल की भांति शुभ्र उत्तरीय और अधोवस्त्र पहने और शरद् ऋतु के बादलों की शोभा वाले उस ऋषभदेव के मन्दिर में चन्द्रमा की भाँति प्रवेश किया ।
५७. स्तंवप्रसूनाक्षत संचयैस्ततः स पूजयामास मुंदाऽतिमेदुरः ।
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उपार्जयन् कीत्तिजयश्रियः सुखीभवेत् स एवात्र हि यो जिनाचकः ॥
बाहुबली ने अत्यन्त प्रमुदित होकर भगवान् ऋषभ की स्तवनाओं, पुष्पों और प्रक्षतों से पूजा की। जो पुरुष जिनेश्वर देव की पूजा करता है वह कीर्ति, विजय और लक्ष्मी का उपार्जन कर इस संसार में सुखी होता है ।'
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अथार्चयित्वा विधिवत् क्षितिश्वरो जिनेश्वरं भक्तिभरातिभासुरः । स्तवंस्तनूजीवविरागितामयैः स्वयं च तुष्टाव सतां ह्ययं क्रमः ॥
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भक्ति के भावों से अत्यन्त देदीप्यमान महाराज बाहुबली ने जिनेश्वरदेव की विधिवत् पूजा की और शरीर तथा आत्मा में वैराग्य उत्पन्न करने वाली स्तवनाओं से स्वयं उनकी स्तुति की। क्योंकि सज्जन व्यक्तियों की यही विधि होती है ।
१. वृषा – इन्द्र ( वृषा शुनासीरसहस्रनेत्री - अभि० २२८६ )