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. भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् "इस लोक में चित्त से अधिक गतिवाला कौन है ? अग्नि से अधिक तेजस्वी कौन है ? बृहस्पति से अधिक विद्वान् कौन है ? (इसी प्रकार) अपने स्वामी बाहुबली से अधिक बलवान् कौन है ?'
७८... अमी बाहुबलेर्वीराः , प्राणैरपि निजं प्रभुम् ।
सर्वथोपचिकीर्षन्त स्तृणाः प्राणा ह्यमीदृशाम् ॥
'बाहुबली के ये वीर सुभट प्राणों को न्योछावर कर अपने स्वामी का उपकार करना चाहते हैं। ऐसे वीर सुभटों के लिए प्राण तिनके के समान होते हैं ।' ....'
७६. अयं चन्द्रयशाश्चन्द्रोज्ज्वलकोतिर्महाभुजः ।
यं संस्मृत्य रिपुवाता , जग्मुः शैला इवाम्बुधिम् ।
"चन्द्रमा की भांति उज्ज्वल कीत्ति वाला यह चन्द्रयशा इतना पराक्रमी है कि इसकी स्मृति मात्र से शत्रुओं के समूह वैसे ही जा छुपते हैं जैसे इन्द्र के भय से पर्वत समुद्र में जा छुपे थे।'
८०. लीलया दन्तिनां लक्षं , त्रिगुणं रथवाजिनाम् ।
हन्त्ययं वीर एकोपि, शैलोच्चयमिवाशनिः ॥
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"यह अकेला वीर एक लाख हाथियों और तीन लाख रथों तथा घोड़ों को क्षण भर मेंवैसे ही नष्ट कर देता है जैसे पर्वतों के समूह को वज्र नष्ट कर देता है।'
८१. कनीयानयमेकोऽपि , सिंहवत् प्रियसाहसः।
रथी सिंहरथः केन , सोढव्यो वह्निवद् रणे ॥
'छोटी उम्रवाला यह अकेला रथी 'सिंहरय' सिंह की भांति साहसप्रिय है। अग्नि की भांति इसको रणक्षेत्र में कौन सहन कर सकता है ?
८२. सिंहकर्णो रणाम्भोषिकर्णधारोयमुल्वणः ।
यबलं वैरिकर्णाभ्यामसहं पविघोषवत् ॥
'यह सिंहकर्ण' रण रूपी समुद्र में स्पष्ट रूप से कर्णधार है। जैसे वज्र का घोष कानों के लिए असह्य है वैसे ही इसके पराक्रम की बात वैरियों के कानों के लिए असह्य है।'
१. उपचिकीर्षन्तः--उपकर्त्तमिच्छन्तः।