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चतुर्दशः सर्गः ७०. ज्येष्ठोङ्गजश्चक्रधरस्य चेष , सूर्योल्वणः सूर्ययशा यशोब्धिः .
यस्यावलोकात्प्रतिपक्षघूको , लीनो वने क्वापि निमील्य नेत्रे ॥
'भरत चक्रवर्ती का यह ज्येष्ठ पुत्र 'सूर्ययशा' है । यह सूर्य की भांति तेजस्वी और यश रूपी समुद्र है । इसको देखते ही शत्रुरूपी उल्लू अपनी आँखें बन्द कर कहीं वन में छुप जाता है।'
७१. आदित्यकेतुर्नपनीतिसेतुर्दारिद्रवाहः स्थितिवारिवाहः।
पितुः पुरः स्यन्दनसन्निविष्टस्त्रिविष्टपं जेतुमपि क्षमोऽयम् ॥
'सूर्य के ध्वज-चिह्न और पीले घोड़े युक्त रथ वाला यह वीर राजा की नीति के लिए सेतु के समान और मर्यादा रूपी जल को वहन करने वाला जलधर है। तीनों लोकों को भी जीतने में सक्षम यह अपने पिता के आगे रथ पर बैठा है।'
७२. देव ! त्वज्यं देवयशास्तदीयानुजो महावीरतया प्रकाशः ।
मयूरकेतुर्मचितारिवों , मयूरवाजीरथसन्निषण्णः ॥
'देव | सूर्ययशा का छोटा भाई यह देवयशा है। यह महान वीरता के लिए विश्रुत है। इसका ध्वज-चिह्न है मयूर । शत्रुओं को मथने वाला यह वीर मयूर के रंग वाले घोड़ों से जुते हुए. रथ पर बैठा है।'
७३. वैरिद्ववारो युधि वीरमानी , सोऽयं रथी वीरयशाः सशौर्यः ।
वज्रध्वजो बभ्र हयोऽरिसर्पान् , हन्तुं नदीष्णों भुज एव यस्य ॥
यह वीरमानी रथी वीरयशा है । यह युद्ध में शत्रु-रूपी वृक्षों का उन्मूलन करने में महापराक्रमशाली है। इसका ध्वज-चिह्न है वज्र । इसके रथ में जुते हुए घोड़े पीत-रक्त वर्ण वाले हैं। इसकी भुजाएँ ही शत्रु रूपी सों को नष्ट करने में निपुण हैं।
७४. . धैर्याम्बुधिधुम्रहयश्च धूमध्वज ध्वजोऽयं कलिभूतधात्रीम् ।
अभ्येति सखः सुयशा निकेतं , दीप्त्युल्वणो दीप इव प्रदोषे ॥
१. श्रेष्ठो''इत्यपि पाठः। २. हारिद्रवाहः-पीला घोड़ा (हारिद्रः पीतलो गौर:-अभि० ६।३०) ३. बभ्र ध्वजो इत्यपि पाठः । ४. बभ्रुः-पीत-मिश्रित लाल रंग (बभ्रुः कद्र : कडारश्च-अभि० ६।३३) ५. नदीष्ण:-निपुण (अथ प्रवीणे क्षेत्रज्ञो नदीष्णो निष्ण इत्यपि-अभि० पृष्ठ ६३) ६. धुमध्वज:-अग्नि ।