________________
द्वितीयः सर्ग:
३५
महाराज भरत राजाओं को जीत ले, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? वे देवताओं से भी अजेय हैं । वे देव तथा असुरवृन्द द्वारा वन्दनीय हैं । क्योंकि महान् व्यक्तियों का प्रभाव वचनातीत होता है।
४७. योऽखण्डषट्खण्डधराधराणां , गौरांशुगौरातपवारणानि ।
हत्यशांसीव नृपः प्रवृत्तः , संवर्तपाथोधिरिवातिरौद्रः॥
जैसे प्रलयकाल का अतिरौद्र समुद्र सब कुछ हरण कर लेता है वैसे ही ये महाराज भरत संपूर्ण छह खण्डों के राजाओं के, चन्द्रमा की भांति उज्ज्वल, छत्रों का हरण करने के लिए प्रवृत्त हैं। मानो कि वे इन राजाओं का यश ही हरण कर लेना चाहते हों।
४८. विद्याधरैराड्यनलय नीयं , गुणैरिवेज्यं सलिलैरिवाब्धिम् ।
गतस्य वैतादयगिरि नृपस्य , तेजोतिदुःसह्यमभूदिवांशोः॥
गुणों से पूज्य व्यक्ति की भांति और पानी से समुद्र की भांति अनुल्लंघनीय तथा विद्याधरों से संपन्न वैताढ्य गिरि पर जब महाराज भरत गए तब उनका तेज सूर्य की भांति दुःसह्य हो गया।
४६. सेनानिवेशा नपोरिहास्य , पञ्चाश दासन्नधिकोत्सवाढ्याः ।
तुरङ्गमातङ्गपुरोषसर्गः , कूटानि तन्वन्त इवातनूनि ॥
वहां महाराज भरत के, वर्द्धमान उत्सवों से परिपूर्ण, पचास सेना-निवेश (छावनियां) थे। वहाँ हाथी और घोड़ों की लीदों के बड़े-बड़े ढेर मानो विशाल शिखर का रूप ले रहे थे। .
५०. तातप्रियापत्यतयाप्रतीतौ , यौ पन्नगेन्द्राननलब्धविद्यौ।
मौनं श्रिते स्वामिनि भारताईगिरीन्द्रसंप्राप्तमहद्धिराज्यौ ॥ ५१. . एतस्य सेनाधिपति सुषेणं , मार्गे न्यरुद्धामविलङ्घनीयौ।
रयं तटिन्या इव सानुमन्तौ , प्रसृत्वरं तौ कटकाभिरामौ ॥
-युग्मम् ।
१. इज्यं-पूज्यम् । २. पञ्जिकाकार कहते हैं कि चक्रवर्ती ने धरणेन्द्र से अडचालीस हजार विद्याएं प्राप्त की थीं
धरणेन्द्रास्यसंप्राप्ताष्टचत्वारिंशत्सहस्रविद्यावभूताम्-पञ्जिका पत्र ६ । ३. भारतार्द्ध ...."राज्यौ-लब्धोत्तरश्रेणिदक्षिण श्रेणिप्रभुत्वौ—पञ्जिका पत्र । ४. नमिविनमिपक्षे-कटकं-सैन्यं, तेन अभिरामो-मनोहरौ। पर्वतपक्षे-कटक:-अद्रिनितंबः, तेन अभिरालो-मनोहरौ ।