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________________ २३२ भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् सब अपने हाथों को तलवार के अग्र भाग से व्याकुल कर दें और अपनी भुजाओं को अभ्यस्त करलें ।' २२. येषां यदूनं च तदर्थयध्वं हानिर्निधौ माणवके न तस्य । , यथाम्भसः प्रावृषि वारिवाहे, यथा मणेः शैवलिनीश्वरे च ॥ 'जिनके पास जो न्यून हो, उसकी वे प्रार्थना करें। जैसे वर्षाकाल के बादल में पानी की और समुद्र में रत्नों की कमी नहीं होती, वैसे ही माणवक निधि में किसी भी प्रार्थित वस्तु की कमी नहीं है ।' 1 २३. स्वसूनुसारङ्गदृशां मुखेषु मनांसि येषां निपतन्ति तेऽपि । द्रुतं निवर्तध्वमनन्यचित्तवतां जयश्रीः करसङ्गिनी हि ॥ "जिन सुभटों का मन अपने पुत्र और स्त्री के प्रति दौड़ रहा है, वे भी यहां से शीघ्र चले जाएं । क्योंकि विजयश्री उन्हीं को हस्तगत होती है जो अनन्यचित्त होते हैं— संग्राम के लिए एक चित्त होते हैं ।' २४. न कातरत्वादपि कम्पनीयं, क्षेत्रे कलेः क्षत्रिय भीमहक्के । तावद्धि दीप्रः किल शौर्य दीपो यावन्न धूयेत परास्त्रवातः ॥ 1 'जहां क्षत्रिय वीरों के भयंकर शब्द हो रहे हों वैसे रणस्थल में आप कायरता से कम्पित न हों क्योंकि पराक्रम का दीप तब तक ही प्रज्वलित रहता है जब तक कि वह शत्रुओं के अस्त्र रूपी पवन से कम्पित नहीं होता ।' २५. या कापि विद्या कुलवर्तनी वः, शक्तिश्च या काचन शक्तयोग्या । सा स्मरणीयात्वधुना भवद्भिस्तदेव शस्तं यदुपैति कृत्ये ॥ 'आपकी कुल परम्परागत जो कोई विद्या है तथा समर्थ व्यक्ति के योग्य जो कोई शक्ति है, आप आज उसका स्मरण करें। क्योंकि जो अवसर पर काम आता है, वही प्रशस्त होता है ।' २६. ईदृग् रणो नो ददृशे भवद्भिस्तत् सावधानाः समरे भवन्तु । यं हृदि क्रीडति यस्य नित्यं स एव धीरोऽत्र रणाचरिष्णुः ॥ , १. शस्तं - प्रशस्त, कल्याणकारक भद्र भद्रशस्तानि - अभि० १/८६ )
SR No.002255
Book TitleBharat Bahubali Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishwa Bharati
Publication Year1974
Total Pages550
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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