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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान ६४ ॥
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कथंचित् संबंध प्रमाणसिद्ध है । तहां द्रव्य क्षेत्र काल भावकी प्रत्यासत्ति कहिये निकटताका विशेष है, सो संबंध है । तहां कोई पर्यायके कोई पर्यायकरि समवायतें निकटता है । ताकू द्रव्यप्रत्यासत्ति कहिये । जैसे स्मरणकै अर अनुभवकै एक आत्माविर्षे समवाय है । ऐसें न होय तो जाका अनुभव पूर्व होय ताहीका स्मरण कैसे होय ? बहुरि बुगलाकी पंक्तीकै अर जलकै क्षेत्रप्रत्यासत्ति है । बहुरि सहचर जे सम्यग्दर्शन ज्ञानसामान्य तथा शरीरविर्षे जीव अर स्पर्शविशेष तथा पहली पीछे उदय होय ऐसै भरणी कृत्तिका नक्षत्र तथा कृत्तिका रोहिणी नक्षत्र इनिकै कालप्रत्यासत्ति है । तथा गऊ गवयका एकरूप तथा केवलीसिद्धके केवलज्ञान एकस्वरूपपणां ऐसे भावप्रत्यासत्ति है ॥ सो यहु प्रत्यासत्ति है, सोही संबंध है । यामैं बाधा नाही । तातें जो संबंध है सोही स्वामीपणांकी सिद्धि करे है । बहुरि यहु संबंध है सोही कार्यकारणभावकी सिद्धि करै है । ऐसें न होय तो मोक्षका उपायादिक सर्वव्यवहारका लोप होय । तातें साधनभी प्रमाणसिद्ध है ॥
बहुरि आधार-आधेयभाव द्रव्यगुणादिकका प्रसिद्धही है । बहुरि स्थिति है सोभी प्रमाणसिद्ध | है । सर्वथा क्षणस्थायीही तत्त्वकू माने सर्वव्यवहारका लोप होय । ऐसेंही विधान प्रमाणसिद्ध है । | जो एकप्रकारही वस्तु मानिये तो प्रत्यक्ष अनेक वस्तु है ते कैसै लोप करिये ? अर प्रत्यक्षकू असत्य |
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