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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६५४ ॥ | निहारि जिस मार्ग मनुष्यादि पहले गये होंय, भूमि मर्दली गयी होय, तिस मार्गविर्षे मंदमंद पगनिकू धरते गमनसिवाय अन्यविर्षे मन न चलावते शरीरके अंगनिकू संकोचरूप राखते गमन करें हैं, तिनकें ईर्यासमिति होय है ॥
बहुरि वचन कहै सो हित मित असंदिग्ध कहै। तहां जामें मोक्षपद पावनेका प्रधानफल होय, सो तो हित कहिये । बहुरि अनर्थक बहुतप्रलाप जामें नाही होय, सो मित कहिये । बहुरि जाके अक्षर स्पष्ट होय तथा व्यक्त होय सो असंदिग्ध कहिये । याका विस्तार मिथ्यावचन, ईर्षासहित वचन, परफू अप्रिय वचन, परका मर्म भेदनेका वचन, जामें सार थोडा होय ऐसा वचन, संदेहरूप वचन, जातें परके भ्रम उपजै ऐसा वचन, कषायसहित वचन, परका परिहास | सहित वचन, अयुक्त वचन, असभ्यवचन, गाली आदिक तथा केठारवचन, अधर्मका वचन, देशकालयोग्य नाहीं ऐसा वचन, आतिस्तुतिवचन इत्यादि वचनके दोष हैं; तिनते रहित मुनि | वचन बोले हैं, ताकै भाषासमिति होय है ॥
बहुरि आहारके उद्गम आदि दोष तिनका वर्जना सो एषणासमिति है । सो गुणरूप रत्ननिका ले चलनवाली जो शरीररूप गाडी ताहि समाधिरूप नगर पहुंचावना है । तातें |
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