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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७५८ ।।
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तहांताई तो व्यक्तरूप इच्छा है अरु जब मोहका उदय अतिमंद होय जाय है, तब इच्छा अव्यक्त होय जाय है, अपने अनुभवमें इच्छा नाहीं दीखे है। अरु मोहका जहां उपशम तथा क्षय होय जाय है, तहां इच्छाका अभाव है । ऐसें होतें सातमां अप्रमत्तगुणस्थानविर्षे ध्यान होय है । ताकू धर्मध्यान कह्या है । तामें इच्छा अनुभवरूप है । अपना स्वरूपमें लीन होनेकी इच्छा है । इहांताई सरागचारित्र व्यक्तरूप कहिये है । बहुरि जब श्रेणी चढे, तब अष्टम अपूर्वकरणगुणस्थान हो है। तहां मोहके अतिमंद उदय होने” इच्छाभी अव्यक्त होय जाय है । तहां शुक्लध्यानका पहला भेद प्रवर्ते है । इच्छाके अव्यक्त होनेतें कषायका मल अनुभवमें रहै नाही उज्वल होय, याही याका नाम शुक्ल कह्या है । अर उपयोग क्षयोपशमरूप है सो मनके द्वारा होय प्रवर्ते है । सो मनका स्वभाव चंचल है। एक ज्ञेयपै ठहरै नाहीं। याहीसें इस पहले ध्यानवि अर्थव्यंजनयोगके विर्षे उपयोगकी पलटनी इच्छाविना होय है। ध्यानी अपना स्वरूपमें लीन हवा ज्ञाता द्रष्टा हुवा देखै | है । सो पलटनीभी पूर्वं श्रुतज्ञानका अभ्यास है ताहीके अनुसार वचननिके विर्षे तथा वचननिकी अर्थ द्रव्य पर्याय स्वरूपविर्षे योगनिके द्वारा होय है । जैसे तैसें नाहीं होय है। __ इस ध्याताके ऐसें विशेषण कीये हैं, जो, एकाग्रमन होय उपशांत भये हैं राग द्वेष मोह |
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