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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयदंजा कृष्ण
दशम अध्याय ॥ पान ७९२ ॥
हस्ते कृतं परमसिध्दिसुखामृतं तै । र्मत्यामरेश्वरसुखेषु किमस्ति वाच्यम् ॥ २ ॥ याका अर्थ — ये पुरुष यह कही जो तत्वार्थवृत्ति ताहि भलेप्रकार धर्मकी भक्तितें सुण हैं । बहुरि नीकें पढ़ें हैं, ते जान्या है तत्वार्थका यथार्थस्वरूप जिननें ऐसे भये संते तिननें परम सिद्धि जो मोक्ष ताका स्वरूप अमृत सो हस्तविषै कीया । अन्य जे चक्रवर्तीपद इन्द्रपदके सुखनिविष किछु कहने योग्य है कहा ? किछु भी नहीं है || २ ||
येनेदमप्रतिहतं सकलार्थतत्त्व- । मुद्योतितं विमलकेवललोचनेन ॥
भक्त्या तमद्भुतगुणं प्रणामामि वीर । मारान्नतामरगणार्चितपादपीठम् ॥३॥ याका अर्थ- मैं जुहूं टीकाकार सो तं कहिसो वीर कहिये श्रीवर्द्धमान अंतिमतीर्थंकर परमदेव ताहि भक्तिकरि प्रणाम करौ हौं । ते कौन? जिननें यऊ निर्वाध सकलपदार्थका स्वरूप यथार्थ कह्या प्रगट कीया । सो कैसे हैं? वे निर्मल केवलज्ञान हैं नेत्र जिनके । भावार्थ - साक्षात् देखि - करि कहे हैं । बहुरि कैसे हैं? अद्भुत आश्चर्यकारी हैं गुण जिनमें । भावार्थ- अतिशयकरि सहित हैं । बहुरि कैसे हैं? निकट आयकरि नमे जे अमर कहिये देव तिनके गण कहिये समूह तिनकरि पूजित है सिंहासन जिनका । भावार्थ- सर्व देवनि के देव हैं ।
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